शनिवार, 15 अगस्त 2015

द लास्ट टच




केतन कन्नौजिया 



यूँ ही आवारगी में अल्फाज़ों को तरतीब देने की कवायद रहती है… कभी गाहे बगाहे कामयाबी मिल जाए तो ठीक, वरना अक्सर नाकाम लौटना होता हैं… ये ब्लॉग शायद गवाह है ऐसी ही आवारगी का… फिलहाल, इक तफ़तीश जारी है खुद की… गम-ए-ज़िंदगी… गम-ए-रोज़गार के चलते मसरूफ़ियत आ जाती है कभी कभार… मगर तलाश मसल्सल है साहब… देखिये कब पूरी होती है.
पेशे का ढंग से पता नहीं अलबत्ता गैरपेशेवर तरीके से एक इंसान बनने की कोशिश है… कब तक बन पाएँ, पता नहीं… दिल से शाइर और दमाग से अनाड़ी… कब, कहाँ, क्या इस्तेमाल करना है, अभी तक नहीं समझ आया… आज भी रिश्तों की फेरहिस्त में दोस्ती की एहमियत बहुत ज़्यादा है.

वक्त रुक जाता गर तो समेट लाते वो लम्हे,
उन शामों में नुक्कड़ पर जो बिखेरे थे कभी !!


हर बीतते लम्हे के साथ बाहर गिरती ओस अपने में जज़्ब हरारत को फ़ना कर रही थी… दिसम्बर 25 की उस रात घड़ी 3 बजकर 18 मिनट दिखा रही थी.

“कितने बजे निकालना है तुमको?”
“सुबह 8 बजे की फ्लाइट है… टी-3 से.”
“पैकिंग पूरी हो गयी? टिकट रख लिया?”
“हम्म! आज रात कुछ तेज़ नहीं बीत रही?”
“जब लम्हे काबू में नहीं होते तो वक़्त पर किसी का बस नहीं रहता… वक़्त यूं ही फिसलता है रेत की तरह. खैर! कोशिश करना के हमेशा यूं ही मुसकुराती रहो”
“यूं ही?”
“हम्म!”
“शायद मुश्किल होगा… मगर कोशिश करूंगी. तुम आओगे शादी में?”
“हाहाहा… क्यों, अनिरूद्ध नहीं आ रहा क्या?”
“हम्म! समझ गयी. मुझे पता था वैसे के जवाब क्या होगा. खैर, तुम अपना खयाल रखना. प्लीज़ जल्दी शादी कर लेना. आई वुड बी रिलीव्ड. तुमको पता है ना, आई स्टिल…”
“हम्म!”

वो लम्हा उसके बाद एक लम्स में जज़्ब होता चला गया… एक लम्बा तवील लम्स. उस एक जोड़ी लब के अलावा शायद उस लम्हे की गवाह उस सर्द रात की खामोशी भी थी जो चाहकर भी कुछ नहीं कह पा रही थी. वो लम्हा… जिसके दूसरी ओर रवायतों में गुम होने वाली दो ज़िंदगियों को अपना-अपना हिस्सा जीना था, बिना एक दूसरे के सहारे के.

कुछ रिश्तों को शायद अपनी मुकम्मल उम्र जीने के लिए ऐसे आखिरी लम्स की ज़रूरत होती है… द लास्ट टच. ये लम्स शायद उस अलाव का काम करता है जिसमें बीते हुए कल का सब कुछ जलकर धुआँ हो जाता है, सिर्फ कुछ यादों की खाक बाकी रहती है… जिसमें से अपना अपना हिस्सा लेकर दोनों जिस्म अलग होते हैं. अंग्रेज़ी में कुछ लोग इसे “क्लोज़र” भी कहते हैं… इसके परे दोनों ज़िंदगियाँ आज़ाद होती हैं… मुक्त… इंडिपेंडेंट!

नज़्म जब अपनी बात कहती है
ना दिन शुरू होता है
ना रात ख़त्म होती है
बस जिस्म सुलगता है और
रूह पिघलती है
दर्द रिसता है और सांस सरकती है
ना ज़मीं मिलती है… ना फ़लक़ दिखती है
इक दूर… अँधेरे में कोई
नज़्म जब अपनी बात कहती है

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