सोमवार, 10 अगस्त 2015

कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े





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पूजा उपाध्याय 





मैं उसे रोक लेना चाहती थी
सिर्फ इसलिए कि रात के इस पहर
अकेले रोने का जी नहीं कर रहा था
मगर कोई हक कहाँ बनता था उस पर
मर रही होती तो बात दूसरी थी
तब शायद पुकार सकती थी
एक बार और


इन्टरनेट की इस निर्जीव दुनिया में
जहाँ सब शब्द एक जैसे होते हैं
मुझे उससे वादा चाहिए था
कि वो मुझे याद रखेगा
मेरे शब्दों से ज्यादा
मगर मैं वादा नहीं मांग सकती थी
सिर्फ मुस्कराहट की खातिर
वादे नहीं ख़रीदे जाते
मर रही होती तो बात दूसरी थी

मुझे याद रखना रे
मेरे टेढ़े मेरे अक्षरों में
फोन पर की आधा टुकड़ा आवाज़ से
तस्वीरों की झूठी-सच्ची मुस्कराहट से
और तुमसे जितना झूठ बोलती हूँ उससे
जो पेनकिलर खाती हूँ उससे
कि ज़ख्मों पर मरहम कहाँ लगाने देती हूँ
कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े

अगली बार जब मैं कहूँ चलती हूँ
मुझे जाने मत देना
बिना बहुत सी बातें कहे हुए
मैं शायद लौट के कभी न आऊँ
मर जाऊं तो भी
मुझे भूलना मत

मुझे जब याद करोगे
तो याद रखना ये वाली रात
जब कि रात के इस डेढ़ पहर
कोई पागल लड़की
स्क्रीन के इस तरफ
रो पड़ी थी तुमसे बात करते हुए
फिर भी उसने तुम्हें नहीं रोका

उसे लगता है मुझे एक कन्धा चाहिए

मैं कहती हूँ कि चार चाहिए
हँसना झूठ होता है
पर रोना कभी झूठ नहीं होता

उसने वादा तो नहीं किया
पर शायद याद रखेगा मुझे

दोहराती हूँ
बार बार, बार बार बार
बस इतना ही
मर जाऊं तो मुझे याद रखना...

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