सोमवार, 21 अगस्त 2017

एक लम्हा दिव्या शुक्ला




वर्षों की घुटन किसी एक लम्हे में चीख बनकर निकलती है तो बनता है 

किस्साघर

जहाँ रहती है कल्पनाओं और यथार्थ के ताने बाने से बुनी कुछ हंसती , सिसकती कहानियां

यूँ तो यहाँ कलम दिव्या शुक्ला जी की है, लेकिन जो कलम पाठकों के दिल में उस घर से जुड़े कमरे बना दे, कलम उनकी भी होती है  ... 


फैसला 
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शाम की ट्रेन थी बेटे की अभी सत्ररह साल का ही तो है | राघव  पहली बार अकेले सफर कर रहा है | उसे अकेले भेजते हुए मेरा कलेजा कांपा तो बहुत फिर भी खुद को समझा के उसे ट्रेन में बिठा आई  | सारी दुनिया से लड़ने वाली मै बस यहीं आकर कमजोर पड़ जाती हूँ , क्या करूँ  चिड़िया की तरह अपने पंखो में सेंत सेंत कर पाला है अपने कलेजे के टुकड़े को | मेरी जान, मेरा राघव ,मेरा ईकलौता बच्चा मेरे जीने का बहाना ---
वरना जिन्दगी तो रेगिस्तान बन कर रह ही गई थी | आज बारह साल बाद उसे उसके बाबा दादी के पास भेज रही हूँ  | नहीं भेजती कभी नहीं भेजती पर जब से सुना अम्मा जी की तबियत बहुत खराब है और अपने एकलौते पोते को हरदम याद करती रहती हैं , न जाने क्यों मन पसीज गया ,सोचा  औरत ही तो हैं  उनका कोई बस ही नहीं था  कुछ कर ही नहीं सकती थी वरना यह नौबत ही क्यों आती  | फिर दादी को पोते से से दूर रखने का क्या हक है मुझे ?  फिर राघव भी अब इतना बड़ा तो हो ही गया है ,  अब अपने परिवार को समझे परखे ,वरना कभी कहीं यह न सोच ले कि माँ की जिद ने उसे अपने रक्त के रिश्तों से दूर किया  | बहुत सोचा फिर दिल को कड़ा कर ये फैसला ले ही लिया अब उसे भेजना ही ठीक ही होगा  | डर भी लगता |कलेजा हौल के रह जाता यह सोच कर कहीं मेरा बेटा मेरे पास वापस न आया तो - कैसे जियूंगी मै उसके बिना ?--नहीं भेजना मुझे  | अगले ही पल सोचती , नहीं भेजना तो होगा ही वरना  कैसे जानेगा समझेगा फिर वह दादी को बहुत प्यार भी करता है पर कभी कहता नहीं -
बाकी तो वह खुद ही समझेगा -- उसकी मम्मा ने कुछ फैसले क्यों लिए -
अब आज की ट्रेन थी -- मैने तो कल ही फोन कर के राघव की बुआ को ट्रेन और कोच नम्बर बता दिया था और यह भी कहा कि वह  अपनी दादी से मिलने जा रहा है ,उसे कोई पहचान लेगा न ? आखिर बारह बरस बीत गया था | इस अरसे में नन्हा राघव किशोर हो गया नरम नरम मूंछो की रेख भी आ गई थी  | लम्बाई तो अपने खानदान पर ही गई थी पांच फिट दस या ग्यारह इंच का तो हो ही गया है अभी से लगता है छह तो डांक ही जाएगा , आवाज़ भी बदल गई है उम्र के साथ साथ  | जब तक पहुँच नहीं जाता मेरी जान अटकी रहेगी , बार बार हिदायत दे रही थी | कुछ रुपये और पता भी अलग से रख दिया था समझाया भी -- " बेटा अगर मन न लगे या कोई कुछ कहे तो आ जाना  पैसे संभाल कर रखना "--,ट्रेन में बिठा कर घर वापस आई तो पूरा घर भांय - भांय कर रहा था ,लगता था जैसे कोई है ही नहीं , -----
धम्म से ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गई , " एक ग्लास पानी दो  दुर्गा गला सूख रहा है ..."
--- पानी का ग्लास टेबल पर रख कुछ देर खड़ी रही दुर्गा फिर बोली " दीदी चाय बनाऊँ ? " उसकी तरफ एक नजर डाल कर मैने पूछा -- " अन्नी कहाँ हैं  उन्हें चाय दी ? " -- " मां जी अपने रूम में लेटी है चाय के लिए कई बार पूछा, मना कर दिया उन्होंने ---- " अच्छा तुम मेरी और अन्नी की चाय अन्नी के रूम में ही ले आओ "
---- मुझे पता है अन्नी नाराज हैं  वह नहीं चाहती थी मै बेटे को भेजूं  | अन्नी भाई के पास रहती हैं  दो हफ्ते पहले ही लखनऊ आई हैं   | जैसे ही उन्हें पता चला मै राघव को भेज रही हूँ  एकदम भड़क उठी मुझ पर ---- " सुन मेघा तेरा तो दिमाग खराब है भेज दिया बच्चे को अगर बरगला लिया तो ,क्या करेगी तू पागल है ….. कभी नहीं सुनती तेरी सारी तपस्या उनका पैसा लील जाएगा  ---"
"अन्नी बहुत थक गई हूँ मै अब मन और शरीर दोनों टूट से गए है " --आशंकाओ में झूलता मन कभी आश्वस्त होता तो कभी भयभीत -- आँख मूंद ली मैने | कहीं खुद के अँधेरे मन में गुम होने की कोशिश , शुतुरमुर्ग की भांति अपने ही पेट में अपनी गर्दन छुपा कर सुरक्षित होने का भ्रम -----
अचानक अन्नी ने सर पर हाथ रखा - " चाय पी ले बेटा ठंडी हो रही है " --
चुपचाप चाय गले के नीचे उतार ली और मैगज़ीन उठा कर पन्ने पलटने लगी  |दुर्गा ने खाना टेबल पर लगा दिया और बार - बार झाँक जाती आखिर मै उठ ही गई |थोड़ा बहुत खाना बहुत मुश्किल से हलक के नीचे उतारा वरना अन्नी भी मुंह बांधे सो जाती  | उन्हें दवा खानी थी और खाली पेट कैसे खाती | जल्दी ही सब निबटा के मै लेट गई |  राघव की ट्रेन सुबह देहरादून पहुंचेगी तब तक मुझे चैन नहीं आएगा जब तक उससे बात न हो जाएँ --ये रात तो बीत ही नहीं रही थी इस सन्नाटे भरी रात का प्रथम पहर धीमे धीमे सरक रहा था  | मै खुली आँखों में सो रही थी --या यूँ कहे तो नींद दूर - दूर तक कहीं नहीं थी  | मेरे  भीतर तेज़ी से एक सन्नाटा सा खिंचने लगा --लेकिन फिर मेरी ख़ामोशी मुखर हो उठी शायद मुझसे बात करने के लिए इन्हीं  एकाकी पलों को तलाशती रहती है -और मै अपने से ही बचती रहती हूँ कहीं मेरी ख़ामोशी विद्रोह न कर दें --और फिर मैनेअपनी डांवाडोल मन :स्तिथि को थपथपा कर स्वयं को एक खोखला सा दिलासा दिया --और फिर एक बर्फीला मौन तान लिया  |
यूँ लगा अतीत का कालखंड फिर से वर्तमान के साथ -जुड़ गया क्यूँ? कितना गूंथा था चिथड़े चिथड़े हुए अपने लहूलुहान वजूद को  | मुझे लगा था दिल पर लगे इन पीड़ा के पैबन्दो को अब कोई उधेड़ नहीं पायेगा ---लेकिन उस दिन अप्पा के रिवोल्वर का लाइसेंस खोजते हुए मां की आलमारी के लाकर के कोने में कागज का बंडल बड़ी हिफाजत से रखा दिखा ,लिफ़ाफ़े पर लिखी हुई लिखावट बहुत अलग सी थी ,पहचानी हुई पर धुंधली सी  | मैने चुपके से उन्हें उठा कर बगल के दराज़ में  रख दिया , तभी अन्नी ने जोर से आवाज़ लगाई----- " मेघा मिला नहीं सामने ही तो रखा है तुझे तो सामने रखी चीज़ भी नहीं दिखती " ---- 
" मिल गया अन्नी बस लाई "--- कह कर दौड़ कर अप्पा को लाइसेंस पकडाया देर हो रही थी आफिस बंद हो जाता शायद रिनियुवल करवाना था  | मेरे लिए मम्मी - पापा न जाने कब अन्नी ,अप्पा हो गए याद ही नहीं पर सिर्फ मै ही पुकारती इस दुलार भरे संबोधन से | अप्पा चले गए | दोपहरी थी सब सोने चले गए यहाँ सब आलसियों की तरह सो जाते है दोपहर में ,पर मेरी आँखों से तो नींद कोसों दूर थी  | मै चुपचाप वो लिफाफा उठा लाई अपने बेडरूम की कुण्डी लगा कर उसे पढ़ती गई और दोनों आँखों से आंसू भी बह रहे थे  | कई बरसों से जिस घाव पर पपड़ी पड़ रही थी आज पूरा का पूरा उधड़ गया  | चुपचाप सारे खत छुपा कर लेट गई ,सर बहुत दर्द हो रहा था  | अभी राघव भी स्कूल से नहीं आया था | उस का इंतजार करते - करते मै कब सो गई पता ही  नहीं चला | आँख खुली तो शाम गहरा गई थी | राघव नानी के पास बैठ कर होमवर्क कर रहा था ,लेकिन मेरे मन में उथल - पथल मची थी | वो खत नहीं दर्द के दस्तावेज़ ही तो थे  |  तकिये के नीचे रखे अन्नी की पुरानी आलमारी के लाकर से मिले दर्द के इन दस्तावेजों को मुट्ठी में मींच मींच कर मै अपने आंसू पीती रही ... उफ़ क्या कहूँ -- माघ की उस  सर्द बर्फीली रात में भी मै पसीने से नहा गई ---माँ ने सारे लिफाफे अपनी छोटी सी अनुभवहीन बेटी से छुपा लिए थे  | वो सारे षडयंत्र कैद हो गए लोहे की मजबूत आलमारी में ! दर्द और क्रोध की लहर दौड़ जाती है सोच कर | मेरे अपने मेरी अन्नी जानती थी ,मेरे अप्पा भी जानते थे -पर मै नहीं | यह सब पर मुझे क्यों  नहींबताया ?---शायद पिता को संस्कारों  और उसूलों के बीच पली बेटी परखुद से ज्यादा भरोसा था --
न जाने क्या सोचती रही और अपने जीवन की किताब उलटती - पलटती रही  | बस कुछ ही
पन्ने पलटे और फिर पलट गया वक़्त भी---मै बरसों पहले पहुँच गई ---अपने अतीत को खुरचते , स्मृतियों को टटोलते टटोलते अपने बचपन में ---
 हमारा परिवार शहर के प्रतिष्ठित परिवारों में था | पिता सूर्यनारायण सिंह जमींदार परिवार से थे और शहर के नामी वकील थे  | उनका दखल और दबदबा राजनीति  में भी था | शहर के किनारे बनी कोठी काफी बड़ी थी ,करीब पन्द्रह सोलह बीघे में फैली हुई  | पीछे आम और मौसमी फलों का बड़ा बाग़ और सामने सुंदर लान ,जिसकी घास जेठ में भी हरी रहती और क्यारियां फूलों से भरी रहती  | अप्पा को फूलों का बहुत शौक था ,खासकर गुलाबों का  | उनके लान में काला गुलाब भी था जिसे वह बहुत सहेजते थे | लान के बीचोबीच बना  खूबसूरत फाउन्टेन जिसमें  खिली हल्की बैगनी कुमुदनी की भीनी महक आज भी मन में बसी है | डबल ड्राइवे की खूबसूरत नीली कोठी मेरे बाबा की सुरुचिपूर्ण पसंद का उदहारण थी ,,गेट में प्रवेश करते समय दोनों ओर लगे बाटल ब्रश के पेड़ उनसे लटकते फूल मानो हर आगन्तुक का हार ले कर स्वागत कर रहें हो | दोनों तरफ बने टैंकों में लाल कमल थे ,पर मुझे वह कुमुदनी के आगे फीके लगते | हम चार भाई - बहन थे | मुझसे बड़े दो भाई थे और एक छोटा भाई | अन्नी अक्सर बताती अप्पा को बेटी की बहुत चाह थी |मेरा जन्म बहुत मन्नत मुरादों के बाद हुआ | मेरे पैदा होते ही अपनी दुनाली बंदूक  से सात फायर कर अप्पा ने मेरा स्वागत किया  | फूल की थाली बजाई गई और खूब उत्सव हुआ | अपने खानदान और बिरादरी की पहली लड़की थी जिसका ऐसा शानदार इस्तकबाल हुआ था -----
अपने पिता के दुलार और हिटलर माँ के कड़े अनुशासन के बीच में बड़ी होती गई .,,,,,,
वक़्त गुजरता गया और मै नाइंथ क्लास में आ गई ! पढने में तेज़ थी इसलिए मुझे डबल प्रमोशन भी मिला पढ़ाई लिखाई और जीवन बहुत मज़े में गुजर रहा था कि अचानक बाबा को दिल का दौरा पड़ा  | यह दूसरा अटैक था सब बहुत घबरा गए | उन दिनों यह बहुत गंभीर रोग माना जाता था | बाबा मुझे लेकर बहुत परेशान  रहने लगे | उनको कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा  | माँ बहुत परेशान रही हम सब भाई बहन अभी छोटे ही थे | मेरी उम्र अभी तेरह साल की ही थी  पर माँ बाबा से मेरे लिए लड़का ढूंढने को कहने लगी | पहली बार जब बोली तो बाबा बहुत नाराज़ हो गये ," अभी तेरह साल की ही तो है मेरी बेटी अभी से इसकी शादी की बात कर रही हो तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया | " 
-- माँ तुनक गई और बोली " आप भी न लड़कियों और बेल को बढ़ने में वक्त कहाँ लगता है , अभी से  खोजना शुरू करेंगे तो दो तीन साल में मनमुताबिक घर वर मिलेगा ,तब तक हमारी बेटी भी पन्द्रह सोलह की हो  जायेगी , फिर शादी में बिदाई कौन करेगा हम तो तीन बरस बाद गौना देंगे  , तब तक हमारी मेघा उन्नीस बरस की सयानी हो जायेगी और घरदारी भी सीख लेगी , ठीक कह रहे है न हम "  बाबा इस बात पर मान गये | उन्हें भी लगा उनकी बेटी के लायक लड़का इतनी आसानी से तो मिलने से रहा तब तक समय भी बीत जायेगा और माँ भी संतुष्ट हो जायेंगी ---
पर भाग्य का लेखा कौन मेट सकता है -- माँ अब सबसे अच्छा घर- वर बताने को कहने लगी  | उन दिनों इंटरनेट तो था नहीं न ही अखबारों में विज्ञापन से विवाह खोजे जाते थे बस जान पहचान के लोगों से ही अच्छे रिश्ते पता चलते थे |मेरी माँ मेरी अन्नी जो अनपढ़ गंवार भी नहीं थी उस ज़माने में थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी जानती थी ,हम सबकी पढ़ाई के लिये बहुत सजग रहती ,न जाने क्यों  इतनी छोटी उम्र में मेरी शादी की बात करने लगी , शायद अप्पा की बीमारी ने उन्हें इनसिक्योर कर दिया था |
उन्होंने अपने हर जानने वालों से मेरे लिये रिश्ता नजर में रखने को बोल दिया | मौका देख कर और अप्पा का मूड देख कर उन्हें भी याद दिलाती रहती  मुझे गुस्सा आता फिर सोचती अच्छा है कर दो मेरी शादी खूब दूर |तुम्हारी डांट से छुटकारा मिलेगा | शादी मेरे लिए तब इससे ज्यादा कुछ नहीं थी | मुझ पर अपने पिता का बहुत गहरा प्रभाव था  | माँ मुझसे निकट नहीं थी अक्सर लगता उन्हें बेटे बेटी से ज्यादा प्रिय थे |शायद इसी ने मुझे जिद्दी बना दिया था ---पर बहुत अनुशासित भी थी | कहानियां पढना और सुनना बहुत अच्छा लगता उम्र ही ऐसी थी | मेरे इम्तिहान भी नजदीक आ रहे थे उधर शादी की बात भी तेज़ी से चल पड़ी | आखिरकार मेरी शादी तय हो गई रिश्ता उसी तरफ से आया | ठाकुर कामेश्वर प्रताप सिंह खानदानी रईस थे | अपने इलाके के  नामी गिरामी और बड़े बिजनेसमैन भी थे | कई बार से इलेक्शन भी  जीतते आ रहे थे | उन दिनों सरकार में मंत्री पद पर थे  | उनके ही करीबी रिश्तेदार अप्पा के पास मेरे रिश्ते की बात करने आये वह मेरे बाबा के भी करीबी थे | शुरू में बाबा ने अधिक मन नहीं बनाया बस अनमना सा जवाब दे कर टाल गये | शायद मंत्री जी की छवि के कारण | लेकिन पता नहीं कैसे समझाया उन्होंने कि बाबा आखिर मान ही गये | उन्हें भी लगा दोनों परिवारों का सामाजिक परिवेश और आर्थिक स्तर एक साही है | उनकी बेटी को वहां परेशानी नहीं होगी |  अप्पा ने वहां जाकर सारी बातें साफ़ -साफ़ कर भी ली  | उन लोगों से यह भी कहा मेरी माँ मेरी पढ़ाई पूरी करवाने के पक्ष में है  |  कम से कम पोस्ट ग्रेजुएट तो कर ही ले बेटी  | 
सबने  सब बातें मानलीं  |  खुले विचारों के लोग थे उनके एक बेटा और दो बेटियां थी | अप्पा ने शादी में विदा न करने की बात भी की और तीन साल में गौने की बात बताई | अम्मा जी यानी मेरी सास ने इस पर अपनी सहमति की मुहर भी लगा दी | उस दिन मेरी शादी करीब करीब तय करके बहुत प्रसन्न मन से घर आये मेरे पिता, जब माँ को सब बता रहे थे पहली बार मेरी माँ के चेहरे पर मुझे  कोई ख़ुशी नहीं दिखी | वह इस रिश्ते से खुश नहीं लगी  , न जाने क्यों उनका मन आशंकित था पर बाबा ने उन्हें समझाया " अरे सुनो तो लड़का बहुत सुंदर है अरे इतनी संपत्ति है फिर राजनीतिक घर है बाप के बाद बेटा ही तो उनका राजनीतिक वारिस होगा | "
अन्नी कुछ देर चुप रही फिर अप्पा से पूछ बैठी , " और पढने में कैसा है उमर कितनी है सब पता लगाया है आपने ? या बस कोठी ,हवेली और उसके बाप का जलवा ही देख कर मगन हो रहें है , जिंदगी तो लड़के के साथ ही कटनी है कहीं अपने बाप के गुण सीख लिये फिर तो राम ही मालिक " --- अन्नी की बात सुन अप्पा झुंझला गये
 " अरे मेरी बेटी है मेरे प्राण बसते है उसमें उसे भाड़ में थोड़ी झोक देंगे | रही बात ठाकुर साहब की तो तुम भी जानती हो जब पद प्रतिष्ठा आती है तो लोगों में ईर्ष्याद्वेष भी आता है |  मान लो कुछ प्रतिशत बातें सही भी हों तो राजपूतों में सब चलता है पर घर तो घर होता है , अपने बेटाबहू का ख्याल तो रखेंगे ही | दोनों प्राणी बहुत ही प्रसन्न लगे  कह रहे थे , अब तो आप हमारे समधी हो गये | निश्चिन्त रहिये मेघा बेटी हमारी बहू नहीं बेटी बन कर आयेगी | अब से हमारी दो नहीं तीन बेटियां है , जैसे वह दोनों पढ़लिख रही हैं  यह भी अपनी पढ़ाई पूरी करेगी | आप निश्चिन्त हो कर जाइए और भाभी जी से बात कर के रिश्ते की मुहर लगा दीजिये बस ....अब तुम्ही बताओ मेघा की माँ इस पर भी शक की गुंजाइश कहाँ रह जाती है | " 
आखिर मेरी शादी मंत्री कामेश्वर प्रताप सिंह के बेटे विजयेन्द्र प्रताप सिंह से तय हो गई | विवाह की तारीख भी रख दी गई | अब तो वह तारीख भी याद नहीं मुझे पर शायद सत्रह फरवरी थी जिस दिन मेरी बरात आई | बहुत भीड़ थी सेंटर से लेकर प्रदेश तक में मंत्री और अधिकारी  | अप्पा के मिलने वाले बहुत से लोग |
उधर से दो हज़ार बराती और बरात में पांच हाथी आखिर मंत्री के पुत्र की बारात थी | अधिकतर लोग दोनों पक्षों के जानने वाले थे |
इसलिए घराती बराती का पता ही नहीं चल रहा था  | बहुत भीड़ थी हाथी पर सवार वर के पिता मुक्त हस्त से नोट लुटा रहे थे --सुनहरी अचकन और जरी के सेहरे में उनका बेटा नवयुवतियों के आकर्षण का केन्द्र था --इतनी भीड़ की द्वारपूजा कि सब तैयारी कहाँ गई पता ही न चला | तीन किलोमीटर से ज्यादा लंबी कार पार्किंग --मेरी चचेरी भाभी मुझे बालकनी में ले गई और कान में कहा, " मै आँखों पर से हाथ हटा रही हूँ तुम देख लो "  | पहली बार मैने उन्हें देखा जिसे मेरे बाबा ने मेरे लिए चुना था | उधर  द्वारपूजा की रस्में हो रही थी और इधर मै सो गई थी | तब उस उम्र में मुझे बहुत नींद भी बहुत आती थी | विवाह का मुहूर्त करीब आने पर मुझे तैयार किया गया | फूलों के गहने पहनाये गये और चौड़े लाल किनारे की पीली साड़ी | कोई सोनेचांदी का जेवर नहीं सिर्फ नाक में बड़ीसी नथ जो बहुत दुःख रही थी फिर भी पहनना ही था |
साड़ी के ऊपर लाल चुनरी का लंबा सा घूंघट करवा के मुझे मंडप में ले आये और शुरू हुई रस्में   | 
लंबे घूँघट में कुछ दिख नहीं रहा था मुझे  | पीछे नाउन बैठी थी मुझे पकड़ कर और कुछ देर बाद नाउन के घुटनों पर पीठ टिका कर मै फिर से सो गई | क्या रस्मे हुई पता ही चला बस एक दो बार जाग गई जब माँ बाबा ने कन्यादान किया और हाथ पर ठंडा पानी गिरा और जब फेरों के लिए उठाया गया तो मेरा पांव सो गया था |सुबह पौ फट रही थी जब फेरे हुए  | बाकी क्या रस्मे हुई कौन से सात वचन भराए गये मुझे पता ही न चला  | अब सोचती हूँ जब मै सो रही थी, रस्में  तक नहीं जानती तो कैसी शादी थी ? वे  सात वचन किसने भरे ? मैने तो नहीं भरे | मै तो नींद में बेसुध थी | यह सब तो बहुत बाद में देखा अपनी भतीजियो और ननद की शादी में दुल्हे की मुस्कराहट दुल्हन के चेहरे की लालिमा | मुझे तो किसी स्पर्श में तब कोई सिहरन भी न हुई थी | दूसरे दिन बरात विदा हो गई --शहर में महीनों तक इस शादी की चर्चा रही ..
मेरी विदा होनी नहीं थी ---
माँ ने पहले ही कह दिया था गौना होगा | अन्नी तो चाहती थी विदा पांच साल में हो तकि मेरी पढ़ाई भी हो जाए और तब तक उन्नीस साल की उम्र भी हो जाए --- जिंदगी फिर पुरानी रफ़्तार पर लौट आई | मै स्कूल जाने लगी  | सहेलियां वही, टीचरें वही, सब कुछ वही पर कुछ तो बदल गया था  | दो चोटियाँ की जगह एक चोटी और सिंदूर भी लगा होता  | मेरी स्कर्ट की जगह चूडीदार और कुर्ते ने ले लिया पर मेरे अंतर्मन की वह  लड़की वैसी ही थी | मुझे ज्यादा दिलचस्पी अपनी पढ़ाई और खेलकूद में थी पर अब अन्नी ने काफी पाबंदियां लगा दी थी | अब मैं पराई थी मेरे शौक सिमट कर रह गए या यूँ कहें समेट दिए गये  |स्कूल के फंक्शन में अब मुझे शामिल होने पर अन्नी ने मनाही लगा दी | समय अपनी गति से चलता गया|  शादी को छह  महीने हो गये -- अब मांबाबा पर साल के अंदर विदा करने यानी मेरे गौने की बात पर दबाव पड़ने लगा | माँ बहुत नाखुश थी इस बात से पर लड़के वाले जिद पर थे लेकिन झुकना तो लड़की वालों को ही था |तीन साल पर भी नहीं माने आखिर मेरी विदा की तारीख रख दी गई फरवरी के दूसरे हफ्ते में.....

 अब मुझे भी अब डर लगने लगा था | कुछ नहीं आता था न घर संभालना न साड़ी पहनना न ही ससुराल के रिश्तों का महत्व ही | मैं तो सिर्फ घर से स्कूल और स्कूल से घर, बाकी कहीं माँ के साथ | बाबा को तो वक्त ही नहीं था -- शादी के बाद माँ नीचे भी खेलने नहीं जाने देती बालकनी से खड़े देखती  रहती  | कभी किसी सहेली घर भी नहीं गई , पता नहीं यह माँ का अहम था या कैसी सोच कभी नहीं समझ पाती |वह खुद भी नहीं जाती थी | अगर गई तो बस जरा देर को अब मुझे कैसे पता चलती दुनियादारी | सखियाँ सहेलियां भी तो मेरी ही उम्र की थी उन्हें भी क्या पता | हममे सिर्फ फिल्म के हीरो की बातें होती हीरो की हैंडसम पर्सनेलिटी और हीरोईन के नखरे उठाना ही मन को भाता |  कभीकभी आपस में बात भी करते --उत्सुकता बहुत होती कि बस हीरो ने हीरोईन के गाल या हाथ चूमे और बस उसे अगले सीन में चक्कर आया या उल्टियां हुई  ....अब यह तो पक्का था उल्टियाँ और चक्कर बच्चा होने का लक्षण है --पर हाथ और गाल पर किस करने से कैसे हो जाता है बच्चा  !इस पर बड़ा दिमाग लगाया था हम दो सहेलियों ने पर नहीं पता चला | उन दिनों चचेरे भाई का ट्रांसफर भी मुंबई हो गया  | भाभी भी साथ चली गई ,लिहाज़ा मेरे गौने के महीनो पहले से ही वह नहीं थी  | अब मुझे कौन समझाता इन रिश्तों के बारे में -- वैवाहिक जीवन के गूढ़ रहस्य मेरे लिए  गूढ़ ही थे बताने वाली एक मात्र सूत्र भी दूर थी -----मेरी विदा की तारीख रखी गई और फिर वह दिन भी आ गया  | मुझे अन्नी अप्पा और अपना बचपन गुड़ियों और सहेलियों को छोड़ कर जाना ही पड़ा  | पन्द्रह साल की उम्र में मेरी विदाई हो गई विजयेन्द्र प्रताप सिंह के साथ  | मुझे ले कर कार बढ़ चली मेरे नए घर की ओर | करीब दो सौ किलोमीटर दूर था  पांच -छह  घंटे लगे पहुँचने में | दूर से ही कोठी की झलक दिख गई और जैसे जैसे नजदीक आते गये लोगो की गहमागहमी और सजावट भी नज़र आने लगी | घर पहुँचने पर सासु माँ यानी अम्मा जी आईं और बड़े प्यार से मुझे थाम कर उतारा  | कार से लेकरकोहबर तक चावल गुड ,और रुपया भरे थाल रखे थे | परछन उतार कर मुझे अंदर उन्हीं  थाल में चला कर ले गये | अम्मा मेरी गलतियों मुझे बताती रही | कोहबर आदि की रस्म खत्म कर मुझे आराम करने भेज दिया  |अब मेरी ही उम्र की लड़कियां और छोटी ननद भी आ गई जिनके साथ मै सहज होने लगी |... मुझे साड़ी तक बांधनी नहीं आती थी , जितने दिन रही मेरी बड़ी ननद मुझे साड़ी पहनाती और तैयार करती मुंहदिखाई के लिए | जिस दिन ससुराल पहुंची उसी शाम पापा ने मुझे मुंह दिखाई के लिए ड्राइंगरूम में बुलवाया ,मुझे अटपटा भी लगा पर --दोनों ननदें  मुझे ले गईं मेरा घूंघट उठा कर चेहरा दिखाया --और ससुर जी ,उन्होंने मुझे भारी सा हार दिया यह कहते हुए कि दिल्ली के बाजार का सबसे भारी और कीमती हार है मेरी बहू के लिए | सभी रिश्तेदार वहां जमा थे  | वह हार मेरी नज़र में  एक पिता का उपहार था | अब इसके बाद रात देर तक पार्टी और डांस का प्रोग्राम था जो सिर्फ घर वालों और रिशतेदारों के लिए ही था अगले दिन रिसेप्शन था ---
---रात के ग्यारह बज रहे थे अम्मा ने कहा
‘’दुल्हन कोकमरे में पहुंचा दो , जरा आराम कर ले | “   | दीदी और कई औरते मुझे कमरे में लाई  |मुझे आधे घंटे आराम के बाद फिर तैयार होना है  | थक कर चूर हो चुकी थी --- पर कमरे में आकर शीशे में अपनी शक्ल देखी तो खुद को ही नहीं पहचान पाई | कितनी बदली हुई थी नाक में बड़ीसी नथ और माथे पर जड़ाऊ मांग टीका ,ये तो कोई और थी मै नहीं थी | फिर कभी नथ घुमाती ,कभी टीका ठीक करती ,कभी घूम कर कमरे में सजे फूलों को छूती करीब पन्द्रह मिनट बीत गये -- अचानक झटके से दरवाज़ा खुला और जोर से ठहाकों की आवाज़ आई | ननद और चचेरी जेठानी और कई औरते चुपके से मेरी सारी गतिविधियों पर नज़र रखे थी | मै बहुत जोर से झेंप गई |
उस दिन मुझे तैयार करने के लिये घर पर ही ब्यूटीशियन बुलाई गई थी --
मैने तो पहले कभी मेकअप नहीं किया था  | माँ काजल के सिवा कुछ नहीं लगाने देती थी मुझे  |उलझन भी हो रही थी आखिर सोना ही तो है ठीक ठाक तो हूँ मै | मुझे मेकअप करना, लिपस्टिक लगाना अच्छा नहीं लगता था , पर यहाँ तो जो सब कह रहे थे वही करना था  | आखिर बहुत  देर तक उन्होंने मुझे तैयार किया ,सारे जेवर पहनाए जो भारी  थे और मुझे  चुभ रहे  थे | मुझे बिठा कर बोली , “सोते समय कपडे बदल लीजियेगा ... “
मै कुछ नहीं बोली  ,बहुत थक गई थी और तकिये पर लुढक गई  | मेरी आँख लग गई थी  |न जाने कब तक सोती रही  कि अचानक किसी के स्पर्श से चौंक कर उठ गई | सामने विजयेन्द्र बैठे थे मै उठ कर बाहर जाने लगी कि मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले , “ कहाँ जा रही हो रास्ता पता है ? “
मैं  काँप गई और चुप थी | जैसे ही हाथ पर पकड़ ढीली हुई, मैं  झट कमरे से बाहर निकल आई -|बहुत कहने पर भी अंदर जाने को तैयार नहीं हुई  तो वे  जा कर बहन को बुला लाये | दीदी बहुत प्यार से पूछने लगी , “ क्या हुआ भाभी सो जाओ न जाकर ... “
मैने धीमे से कहा , ” मै आपके पास सो जाउंगी ,यहाँ नहीं... सब क्या कहेंगे ....इतना बड़ा आदमी भी यहाँ सोया था | ” ---.वह मुस्करा कर बोली , “ सब कमरे भरे हैं कहीं जगह नहीं है... भाभी सोना तो तुमको यही पड़ेगा  | आज से यही तुम दोनों का कमरा है ... “
मुझे कमरे में छोड़ कर वह  चली गई | विजयेन्द्र वापस गये और मेरा दोनों हाथ थाम लिया और हिल भी नहीं पाई मै  | उस रात ने न जाने कितनी खरोंचे डाली आत्मा पर |पति -पत्नी ,स्त्री -पुरुष के खूबसूरत रिश्ते  को पहली बार जाना वह भी बड़े भयानक रूप में ......कितना रोई मै लगातार रोती रही पर कोई असर नहीं | कुछ देर बाद बगल में खर्राटे गूंजे और मै सिसकी भरती रही | आखिर रोते -रोते थक गई और आँख झपक गई | मै नींद में जोर-जोर से माँ को पुकार रही थी | विजयेन्द्र ने मेरा हाथ पकड़ कर हिलाया , “अरे क्या हुआ सपना देखा क्या सपने में डर गई क्या ? “ क्या बताती सपना ही तो था जो गुज़रा | एक बुरा सपना बहुत बुरा भयानक था वह सब --
उस रात ने -एक किशोरी को अचानक बड़ा कर दिया --तोड़ दिया उसे कांच सा --
उफ़ कितनी बेदर्द थी वह रात ,जिसने उसकी पूरी जिंदगी बदल दी | रिश्तों का नया सच और अलग रूप दिखा दिया | फिर उसे लगा शायद सारे पति ऐसे ही होते है ,सभी ऐसे रहते है --और अपनी नियति मान कर संतोष कर लिया बस समझौता ---पर वह भयानक रात जिंदगी भर को ठहर गई हमारे बीच में |
मैने  अन्नी से बताया था जा कर यह सब --- 
मेरी माँ मौन स्तब्ध सुनती रही कुछ नहीं बोली | शायद उनके पास बोलने को कुछ था ही नहीं | वह भीगी आँखों से मेरा मुंह देखती रही --फिर मुझे चिपका लिया सीने से --
-सिनेमा और उपन्यासों में नायक और नायिका को देख पढ़ कर मन में छवि थी गाने गाते ,रूठते मनाते मनुहार करते नायक की, शरद के नायक की ,जो बहुत भाती थी मुझे --एक झटके से टूट गई | बड़ी निर्ममता से मानो एक साथ सैकडों शेंडलियर अचानक छनाक से टूटे हों | साथ ही मेरा मन हज़ार टुकडों में टूट गया --कुछ नहीं बचा ,बस बची बेचारी रात --बेचारी इसलिए कि वो रात भी कुछ न कर पाई पर साक्षी है मासूम सपनों के टूटने की | मन में डर सा बैठ गया रात आने का | मै कोई गुड़िया न थी जिससे खेला जाए |
गुड़िया भी संभाल कर खेलते है | मै अपनी गुड़िया से बातें करती थी ,उससे खेलती और ह्रदय से लगा कर सो जाती --वो बेजान थी -- पर मै तो जीती जागती थी | कोई खिलौना नहीं जिससे खेल कर करवट बदल कर सो गये | बिना यह सोचे क्या गुज़रा मुझ पर | मै नहीं सो पाई पीड़ा घृणा क्रोध सब मिला कर न जाने क्या गुज़रा मुझ पर |  थक कर आँखे मूंद रखी पर सोई कहाँ मुझे नींद ही नहीं आई  |  मन पर लगे आघात और पीड़ा से आँखे मुंद भर जाती थी और सपने भी भयानक आते | उतनी ही देर में मानो कोई दैत्य हाथ पकड़ कर घसीट रहा हो बस मधुयामिनी की वह रात्रि जो किसी भी लड़की के जीवन में एक ही बार आती है | गुज़र गई कभी न भूलने वाली यादें सौंप कर उस समय लगा किसी भी लड़की के जीवन में यह रात कभी न आये --अब सोचती हूँ बहुत अच्छा था ,कुछ पता नहीं था वरना और भी ज्यादा दुःख होता मुझे फिर यही लगा ऐसे ही होते होंगे पति ----
सच ही तो है उम्र कम हो तो घाव जल्दी भरते हैं और दर्द भी जहन से मिट जाते हैं  ----
लेकिन हर जख्म अपना निशान तो छोड़ ही जाता है --बस मै भी विजयेन्द्र के साथ खुश रहने लगी उन्हें कोई शिकायत न हो इसका पूरा धयान रखती ,
अम्मा मुझे बहुत प्यार करती |मेरे बारहवीं के इम्तिहान आने वाले थे ----
अन्नी का बार बार फोन आ रहा था मुझे बुलाने को -----
" मेघा तू कब पढेगी कोई तैयारी नहीं है तेरी घर में बात कर ले तो लिवाने भेजूं "
--- " ठीक है अन्नी मै बात करती हूँ आप अप्पा से कहें न एक बार पापा जी से बात कर लें " 
" ठीक है कहती हूँ बेटा , पर तेरे बाबा ने बात की थी समधी जी से | उन्होंने कहा भेज देंगे कुछ दिन और रहने दीजिये होती रहेगी पढ़ाई , वैसे भी कौन सी कमी है हमें अपनी बहू से नौकरी तो करानी नहीं | अभी तो मेघा का ही मन नहीं है | अब क्या कहते तेरे बाबा भी चुप हो गये पर मुझे तेरी पढ़ाई की चिंता है बेटा  | तू बात कर तो भाई को भेजूं " ... अन्नी ने फोन रख दिया तो मै सोच पड़ गई , रात को सोते समय डरते डरते विजयेन्द्र से बात की अपनी परीक्षा के बारे में और बताया भी
" आज अन्नी का फोन आया था  "--- 
" कल बात करेंगे अभी मुझे सोने दो ,पापा से भी पूछना है, घर के बड़े वह हैं  जैसा कहेंगे वही करना होगा " 
दूसरे दिन मैने पापा जी से बात की तो वह बोले ...
" अरे मेघा अभी चली जाओगी घर सूना हो जायेगा आखिर क्या कमी है बात करूँगा समधी जी से तुम परेशान न हो फिर विजयेन्द्र जैसा कहे तुम्हे वही करनाहोगा पति के अनुसार ही चलती है हमारे खानदान की औरतें " ...
 मै एकदम अवाक् रह गई बेटा कहता है पापा जैसा कहें और पिता कहते है उनका बेटा जैसा कहे मेरी समझ में नहीं आया , आँखे भर आई और आंसू बहने लगे ,तभी ससुर जी उठ कर मेरे करीब आये और मुझे अपने सीने से लगा लिया और बोले ---
 " अरे रो रही है रोना नहीं कभी मुझे दुःख होगा अगर मेरी मेघा रोई मेरी बहू की इतनी सुंदर आँखे आंसुओं से भरी नहीं अच्छी लगती चुप हो जाओ अपनी तैयारी करो, हम फोन करते है समधन जी को, कल ही भेज दें किसी को  | "
मै बहुत खुश हो गई पर पापा का इस तरह लिपटना कुछ -अजीब -सा लगा |  उनकी उंगलीयों का मेरी पीठ पर दबाव मुझे उलझन दे रहा था , फिर लगा नहीं यह वहम है मेरा और मायके जाने की ख़ुशी में यह ख्याल भी मेरे दिमाग से आया -गया हो गया --
परीक्षा को बस चार महीने रह गये थे | पढ़ाई दो- तीन महीने से बिल्कुल भी नहीं हुई थी | दशहरे की छुट्टियों में विजयेन्द्र मुझे ले आये थे और कहा था दीपावली तक भेज देंगे, पर अब तो दिसम्बर भी खतम हो रहा था ---- इस बीच मेरी तबियत खराब रहने लगी थी .......
मुझे तीन महीने की प्रेगनेंसी थी | राघव मेरे पेट में आ गया था | विजयेन्द्र नें तो बहुत कोशिश की शुरू के ही दिनों में अबार्शन  करवाने की पर मै नहीं मानी | अम्मा जी ने भी बेटे को डांट लगाई तब कहीं जा कर जिद छोड़ी , लेकिन बार बार यही धमकी दी --
 " अभी से बच्चा क्या जरूरत है फिगर खराब हो जायेगी फिर तुम जानना मुझे नहीं चाहिये अभी बच्चा " 
 " मुझे अपना बच्चा नहीं गिरवाना बस "  इतना कह कर मै अपने काम में लग गई , यहाँ इन दो -तीन महीनो में मुझे एक बात और पता चली जो इन लोगों ने अप्पा से छिपाई थी  | विजयेन्द्र ने अभी ग्रेजुएट भी नहीं किया था  | आखिरी साल का पेपर इसी साल दे रहे है ,सुन कर बहुत अजीब लगा  | हम दोनों में उम्र का भी फासला काफी था करीब चौदह -पंद्रह साल का | ख़ैर प्रेम हो तो पति - पत्नी में यह फासले मायने नहीं रखते | दो दिन बाद बड़े भाई मुझे लेने आ गये | विजयेन्द्र सो रहे थे | मुझे कार तक छोड़ने भी नहीं आये पर मैने निकलने से पहले उनके माथे पर धीमे से एक चुम्बन लिया और कहा ,
---- " सुनो न  ,मै जा रही हूँ तुम मुझसे मिलने आओगे न .....अब चलूं ....बोलो ? "
--- " हां तुम जाओ फोन से बात करूँगा अभी बहुत नींद आ रही है सोने दो " 
मै अम्मा के पाँव छू कर कार की तरफ चली | सामान रख दिया गया था | अम्मा ने भी मुझे अपना और बच्चे का ध्यान रखने को समझाया |  
तभी पापा आ गये और बोले ,.. " अरे मेरी बहू जा रही है चलो इसे मै कार तक छोड़ आऊँ " और उन्होंने अपने एक हाथ के घेरे में मुझे समेट लिया | बहुत दुबली पतली थी मैं | वो मुझे अपने से सटाये हुये थे | उनके हाथों की पकड़ मेरी बाहों पर थी | कार तक पहुँच कर खुद उन्होंने मेरे लिये दरवाज़ा खोल दिया | मै जल्दी से खुद को छुड़ा कर बैठ गई , पर अचानक देखा वह भी अंदर आ कर बैठ गये | मै घबरा गई | उन्होंने अपनी लम्बी बाहें मेरे कंधे पर रख मुझे अपने पास खींच लिया और मेरे कान में फुसफुसा कर कहा , " जल्दी आना तेरी बहुत याद आयेगी  |  बहुत सुंदर है तेरी मदभरी आँखे  " 

मै निष्प्राण सी हो गई , जैसे हाथ पाँव से जान ही निकल गई बहुत डर गई थी.... तभी उनका हाथ मेरे कंधे से होता हुआ मेरे वक्ष को टटोलने लगा तो अचानक बिजली के करेंट सा लगा मुझे और एक झटके से मै दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल आई | पसीने से तरबतर पूरा शरीर मै बहुत घबरा गई थी  लेकिन वह तो एकदम नार्मल थे ,कहने लगे , " अरे बहू | उतर क्यूँ गई कुछ भूल गई क्या ? चलो बैठो जल्दी जाओ नहीं तो पहुँचने में देर हो जायेगी | "  मै मूर्ति सी कार में जा कर बैठ गई |  मायका आ गया पर पूरे रास्ते एक शब्द भी नहीं बोली  | 
बहुत बड़ा सदमा था यह मेरे लिये , किससे कहूँ कौन मेरी बात पर यकीन करेगा | विजयेन्द्र को क्या कहूँ ...कैसे कहूँ ...कैसी गन्दी हरकत की उनके पापा ने कितना दुःख होगा उन्हें --इसी सोचविचार में उलझी रही |, अप्पा ने कहा भी " अरे मेरी बेटी इतनी चुप कैसे है क्या हुआ बेटा "
 " कुछ नहीं अप्पा बस थक गई हूँ " --- अन्नी को लगा प्रेगनेंसी की वजह से सुस्त हूँ पर मेरे सामने उन्होंने अप्पा को कुछ नहीं बताया कि वह नाना बनने वाले है ---
इस घटना से मुझे बहुत मानसिक आघात लगा | परीक्षा भी निकट थी और मेरी तबियत भी ढीली ढाली रहने लगी थी | किसी तरह पढाई शुरू की  | दोस्तों ने नोट्स भी जुटा दिए थे और टीचरों ने भी सहायता की लेकिन इम्तिहान बहुत अच्छे नहीं हुये......
पास हो जाऊं यही बहुत था मेरे लिये | किसी तरह पेपर ख़तम हुये  | इन दो -तीन महीनों में विजयेन्द्र दो बार आये  | एक दो- दिन रुक कर चले गये , इस बीच कई बार मैने उनसे बात करने की  सोची  भी फिर टाल दिया  | पेपर देने के बाद बताएँगे | कही ऐसा न हो गुस्से में विजयेन्द्र मुझे इम्तिहान देने से मना ही न कर दें ,| बाद में अवसर देख कर जब मैने उन्हें सारा वाकिया बताया तो वह एकदम से भड़क गये पहले तो सारी बात बहुत ध्यान से चुपचाप सुनी फिर मुझ पर ही बरस उठे और मुझे ही खरीखोटी सुना डाली  , " "फ़ालतू बकवास बंद करो तुम्हारा दिमाग खराब है, इलज़ाम लगाते तुम्हे शर्म नहीं आई " -- वह एक दिन ही रुके पर मुझसे बात भी नहीं की और चले गये-
पेपर ख़तम होने के महीने भर बाद ही मेरा बुलावा आ गया | मुझे जाना पड़ा | इस बार जाते समय मै फूट फूट कर बहुत रोई अपनी अन्नी और अप्पा से लिपट के , --
हमारे यहाँ पहला बच्चा मायके में ही होता है  इसलिये आठवां महिना लगते ही अन्नी ने मुझे बुलवा लिया | वैसे तो वहां अम्मा जी भी बड़ा ख्याल रखती थी पर विजयेन्द्र पता नहीं किस मिटटी के बने थे |मै जितना ख्याल करूँ ,कितना भी प्यार करूँ , उनके लिये मेरी जरूरत बिस्तर तक ही थी ,बहुत दुःख होता था मुझे |सात ,आठ मास के गर्भ में औरत के शरीर में बदलाव तो आता है और माँ बनने की रौनक भी..... पर मेरा पति मुझे ताने मारता , " कितना बेडौल शरीर हो गया है पेट कितना निकल आया है अच्छी भली फिगर थी सत्यानाश कर लिया है | बाद में भी सारा बदन ढीला ढाला हो कर लटक जायेगा | बहुत शौक था न बच्चे का ...अगर बेडौल हुआ शरीर तो मुझे दोष मत देना - "
--- बहुत बेइज्जती लगी मुझे और दुःख भी हुआ | कैसा पति है इसे सिर्फ मेरे जिस्म से मतलब है मुझे चाहे जितनी परेशानी हो ,पर इनकी जिस्मानी भूख को शांत करना अभी इस हालत में भी मेरी ड्यूटी है ,अब यह बात कोई बेटी अपने माँ बाबा से कैसे कहे -.....
अरे ,यह बात तो शर्म के मारे ससुराल में भी नहीं बता सकती | मै गुजरती रही इस तकलीफ से और अपने बच्चे की सलामती के लिये ऊपर वाले से दुआ मांगती रही | .ऐसे में मायके आकर लगा सजायाफ्ता कैदी को उसके टार्चर से कुछ दिन की रिहाई मिल गई | पैरोल पर ही तो आई थी मै ,फिर उसी सोने चांदी की जेल में जाना था जो दूर से बहुत सुनहरी थी पर काले अँधेरे के सिवा कुछ नहीं था वहां | 
वक्त आने पर राघव मेरी गोद में आया | इसे जन्म देते समय केस उलझ गया और मै मरने से बची , पर रुई- सा- नरम गोलगदबदा सा राघव इतना प्यारा था  कि उसे गोद में लेते ही सारी पीड़ा सारा कष्ट न जाने कहाँ गायब हो गया | चार महीने बाद राघव को लेकर मै ससुराल गई |  सब बहुत खुश थे आखिर वारिस जो आया था मंत्री ठाकुर कामेश्वर प्रताप सिंह जी के खानदान का -- खुशियाँ मनाई गई खूब दान दक्षिणा दी गई --
मेरी दोनों ननदों को भतीजे के जन्म पर भारी भरकम नेग मिला | इसी बीच एक दिन मै बैंक गई लाकर खोलने पर वहां जाकर मुझे पता चला कि लाकर तो सिर्फ विजयेन्द्र के नाम है | मै उसे नहीं खोल सकती | ऐसा कैसे हो सकता है ,लाकर तो ज्वाइंट खुलवाया था हम दोनों के नाम अम्मा जी यानी मेरी सास जी ने | ख़ासतौर पर अपने बेटे को सहेजा था कि लाकर में विजयेन्द्र और मेरा दोनों का नाम होगा | बहुत सदमा लगा इसलिए की मुझे धोखे में क्यों रखा! बता तो देते क्या फर्क पड़ता दोनों में किसी का भी नाम हो| फिर हमने तो कहा भी नहीं ,था अम्मा जी ने ही साथ भेजा था | याद आया उस समय पेपर पर दस्तखत तो करवाये थे पर अब पता चला वह मुझे बेवकूफ बनाया था | मेरे मायके का भी काफी जेवर उसी में रखा था | घर आकर अम्मा को बताया तो उन्हें देख कर लगा उन्हें बुरा तो लगा पर वह मजबूर थी कुछ नहीं बोली | विजयेन्द्र से पूछने पर वह बिगड़ गये , " हां मैने सिर्फ अपने ही नाम खुलवाया है तो ? तुम क्या करोगी ,तुम कैसी औरत हो पति पर भरोसा नहीं है इतना लालच है तुम्हारे भीतर  --- "
मै सहम कर पहले तो चुप हो गई , पर इतना कहे बिना नहीं रह सकी ,  " न लालच नहीं दुःख हुआ है तुम्हारे धोखे से आखिर झूठ क्यों बोला अगर कहते तो मना थोड़ी करती मुझे तो भरोसा था पर शायेद तुम्हे नहीं इसीलिये ऐसा धोखा क्यों ? " 
बाद में अम्मा जी के मुंह से बात निकल गई | लाकर अकेले के नाम करने का आदेश ससुर जी का ही था -- इंटर किसी तरह पास हो गई थी  | कालेज में एडमिशन नहीं ले पाई | राघव नन्हा सा था ,सोचा प्राइवेट बीए कर लेंगे यही ससुराल में ही रह कर पर न तो कोई मुझे किताबें ला कर देता न ही फ़ार्म |विजयेन्द्र से बहुत मिन्नत की , प्यार से कहा पर अनसुना कर दिया ...आखिरकार मेरे सब्र का बाँध टूट गया उस रात मै रोई और मेरा जोरदार झगड़ा हुआ | गुस्से में विजयेन्द्र कह बैठे , “ पापा ने मना किया है पढ़ाने को....
अब बच्चा  है ... उसे देखो ,क्या कानून सीखना है पढ़ कर ? ” 
मुझे बिलकुल भी यकीन नहीं हुआ | मुझे लगा यह खुद चाहते है ऐसा और पापा पर थोप रहे है | उन्होंने तो अप्पा से कहा था मै जितना पढना चाहूँ पढूं |  यहाँ कोई काम भी तो नहीं था , पर यह बात सच थी , अन्नी की आलमारी में मिले लिफ़ाफ़े में मंत्री कामेश्वर प्रताप सिंह का ही पत्र था उन्हीँ की हैंडराइटिंग में जो उन्होंने अपने पुत्र को लिखा था ,जिसमे मुझे आगे पढने पर रोक के साथ ही मेरे हाथ में पैसा भी न दिया जाय इसकी सख्त हिदायत थी |
कितनी अजीब बात थी | ये खानदानी लोग थे | जिनके हाथ पाँव बाँधने के तरीके भी कितने अलग थे ,जकड़ भी देते थे जंजीरों से और दिखती भी नहीं कोई जंजीर -
इस जकड़न का दर्द वही बता सकता है जिस पर गुजरती है |  धीरे धीरे सब राज खुलने लगे | विजयेन्द्र कुछ नहीं करते थे | बाप का पैसा इफरात था और वह इकलौते बेटे चाहे जितना उड़ायें | सिर्फ शराब छोड़ बाकी सभी दुर्गुण थे उनमें ,पर मैने क्या कसूर किया था  ?  सब कुछ था घर में | मुझे कोई कमी नहीं थी सिर्फ किताबें नहीं मिलती और पैसा तो मेरे पास उतना ही होता जितना अन्नी ,अप्पा मुझे दे कर भेजते या अप्पा जब आते तो पकड़ा जाते | मै उनसे भी नहीं कह सकती थी यह सब | उन्हें दुःख होता | वह तो सोचते होंगे  कि मुझे कोई कमी नहीं है यहाँ | मै सोचती धीरे -धीरे सब ठीक हो जाएगा | अपने पति को मै मना लूंगी अब रहना तो यही है | बहुत कोशिश करती राघव के साथ उसके पापा का भी पूरा ख्याल रखती | कभी दिन अच्छे भी गुजरते पर यह समय बहुत कम आता |

एक रात अपने बेटे को मै अपना दूध पिला रही थी ,कि विजयेन्द्र ने उसे गोद से छीन लिया | वो चीख कर रोने लगा -मैने उसे लेना चाहा तो वह बोले , " इसे अपना दूध क्यूँ दे रही हो अब छह महीने का हो गया इसे डिब्बे वाला दूध दो ,कहा था न तुमसे तुम्हारी इतनी खूबसूरत फिगर बिगड़ जायेगी और मुझे बेडौल औरतों से घिन आती है ,अगर तुम्हारा यही रवैया  रहा तो इसे आया के पास सुलाना होगा ,
फुल टाइम नैनी रख दूंगा | " 
मुझे बहुत गुस्सा आया मेरी सहनशक्ति खतम होने लगी थी | मैने विजयेन्द्र से कहा --
" अपने बच्चे को तो दूध पिलाऊंगी ही मै और इसे इसकी माँ ही पालेगी कोई आया नहीं इसे आप जान लीजिये यहाँ इस बात पर कोई समझौता नहीं बस " 

धीरे -धीरे राघव दो साल का हो गया  | अब उसे खिलाने में सब को बहुत अच्छा लगता | उसकी हरकतें बड़ी प्यारी होती | उसके बाबा दादी उसे बहुत दुलारते | मै भी एक बुरा सपना समझ कर वह  घिनौना हादसा करीब -करीब भूल ही रही थी कि विजयेन्द्र किसी काम से हफ्ते भर को कहीं चले गये | मै अपने कमरे में अकेले ही सो रही थी ,पास में राघव था | अचानक नींद में अहसास हुआ कोई हाथ मेरे चेहरे मेरे ओठों  पर रेंग रहा है | गहरी नींद से अचकचा कर उठ बैठी और एक साया तेज़ी से कमरे के बाहर चला गया | मै जल्दी से पीछे भागी तो देखा कुछ दूर पर मेरे पति के पिता जी जाते दिखे | उस दिन के बाद मै अकेली नहीं सोई , एक नौकरानी मेरे बेड के पास नीचे बिछा कर सोती , पर इस बार तो उन्होंने हद्द ही कर दी | कभी राघव को गोद लेने के बहाने ही मेरे शरीर को हाथ लगा देते | कोई मौका नहीं चूकते वह | विजयेन्द्र के वापस आने पर मैने फिर उनसे कहा | इस बार उन्होंने मुझसे कुछ नहीं कहा पर अपने पापा से कोई बात जरुर की | महीनों बाप बेटे में अबोला रहा | अब वह मुझसे भी बात नहीं करते.... बस राघव को दुलारते मगर 
वह मुझे जब भी देखते एक अजीब - सी  कामुक चमक कौंधती उनकी आँखों में ,मानो मुझे निगल जायेंगे | उनका स्पर्श जहाँ भी लगता शरीर में, मै रगड़ कर धो आती |
इधर विजयेन्द्र भी मुझ पर खीजने लगे थे | पिता ने हाथ सिकोड़ लिये थे और उन्हें खुला खर्च करने में दिक्कत आ रही थी | इसकी खीझ और गुस्सा वह मुझ पर निकालते | यह कुछ महीने चला और आखिर पुत्र ने पिता से माफ़ी मांग लिया कि उसे गलतफहमी हुई  | मैने ही उसे भड़काया |आखिर धन का पलड़ा भारी हो गया | एक बार अम्मा और दोनों ननदें  कहीं गई थी | राघव को बुखार था मै घर पर रुक गई | नौकर चाकर तो थे ही अचानक कामेश्वर प्रताप सिंह,मेरे ससुर जी दौरे से वापस आ गये | मुझे अकेली पाकर मेरे कमरे में आये इस बार उन्होंने बिना लागलपेट के सीधे अपनी बात कह दी  ,

 " मेघा तुम समझ नहीं रही या समझना ही नहीं चाहती , तुम मुझे बहुत प्यारी हो मेरी बात क्यूँ नहीं मान लेती ,मै तुम्हे कोई कमी नहीं होने दूंगा | तुम कालेज में दाखिला ले कर अपनी पढ़ाई भी पूरी करना ,मेरे पास बहुत पैसा है और मेरा बेटा मेरे खिलाफ कभी नहीं जायेगा ,अगर उसने कोई हिमाकत की भी तो उसे बेदखल कर दूंगा अपनी जायजाद से  | सुना तुमने ....अब मान भी जाओ न " 
कहा और मुझे अपनी बाहों में भरने लगे |

 मैने उन्हें झटक दिया  | धक्का दे कर मुश्किल से खुद को अलग किया और क्रोध और घृणा से भर कर कहा , " आप बाप बेटे मिल कर फैसला कर लीजिये मुझे किसके साथ रहना है | मै एकसाथ
दोनों की बीवी बन कर नहीं रह सकती ,और हाँ ! अगर आपने मेरे साथ कभी जबरदस्ती की तो मै अप्पा से सब बता दूंगी और आत्महत्या कर लूंगी राघव के साथ | मेरे बाबा आग लगा देंगे यहाँ वह आपको नहीं छोड़ेंगे  " वह बाहर चले गये |
मै देर तक शावर के नीचे खड़ी अपने शरीर को रगड़ कर धोती रही और आंसू बहते रहे  |  अपने चेहरे को साबुन से कई बार धोया तन पर मानो कांटे उग आये हो |
अब पानी सर के ऊपर आ गया था | सोचा अम्मा से कहूँ फिर लगा उन्हें कितना दुःख होगा अपने पति के दुष्कर्म को जान कर, फिर भी मैने उन्हें बताया | वह सब सुनती रही और इतना ही बोली ,
 " हमें पता था यह होगा फिर लगा डाईन भी सात घर छोड़ देती है ...
हो सकता है बहू को बख्श दें पर ये नहीं सुधरेंगे ,तुम किसी से कहना नहीं बेटा ......समधी जी से तो बिलकुल मत कहना " इतना कह कर वह भीगी आँखे चुपके से आंचल से पोछती हुई कमरे से चली गई ,और -मै अवाक् रह गई , उस पल वह मुझे बड़ी निरीह और असहाय लगी ...

दो तीन दिन बाद विजयेन्द्र वापस आ गये | मैने सोचा , आज रात इनसे बात करुँगी ,मेरे लिये यहाँ रहना बहुत मुश्किल है | उस दिन इनका मूड भी बहुत अच्छा था | रात को जब चेंज करके मै सोने आई तो विजयेन्द्र बड़े रोमांटिक मूड में मेरा इंतजार कर रहे थे , " मेघा कितनी देर लगा दी आओ न कब से इंतजार कर रहा हूँ " 
और मेरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया , हालाकिं यह हफ्ते भर बाद वापस आये थे फिर भी मैने मना किया ----- " सुनो आज नहीं मेरा मन खराब है आज तुमसे बात करनी है "  मेरी बात अनसुनी कर करीब आ गये अपना हक वसूलने मै आँखे बंद करके एक बुत की तरह पड़ी रही  | वह मनमानी करते रहे | मैने आँखे खोली तो मुझे विजयेन्द्र का चेहरा कामेश्वर प्रताप सिंह में बदलता दिखा -
दोनों की शक्लें आपस में गड्मड होने लगी , मैने अचानक विजयेन्द्र को धक्का दे कर हटा दिया |
 " मेघा क्या हुआ ,किसी अच्छे साइकेट्रिक को दिखालो अब तो पागलपन के दौरे भी पड़ने लगे है तुम्हे अच्छा भला मूड बिगाड़ दिया ,भाड़ में जाओ तुम " कह कर करवट बदल ली  पर मुझे नींद कहाँ | 
राघव को सीने से लगा कर सारी रात आँखों में ही काट दी |
 सुबह नाश्ते के बाद लान में हम दोनों अकेले बैठे थे | विजयेन्द्र मुझसे रात की बात से अभी भी नाराज़ थे , हालाकिं मैने माफ़ी मांग ली थी और पहले कभी ऐसा किया भी नहीं था , फिर भी उनका मुंह सूजा ही था |
 मै भी तो बहुत परेशान थी |
जिस जद्दोजहद से मै गुजर रही थी अब उसका हल निकलना ही चाहिये,यह सोच कर ही मैने बात छेड़ी, 
"सुनो मुझे तुम से बात करनी है "  विजयेन्द्र ने अख़बार से नजर उठा कर मुझे देखा , " बोलो क्या बात है अब क्या हो गया "  मैने उस दिन की सारी बातें बताई वो सुनते रहे ,  " मेघा तुम अब बंद करो यह फ़ालतू बकवास तुम्हारे भड़काने से मै अपने माँ बाप को नहीं छोड़ सकता , " 

मै कुछ दिन के लिये अपने मायके चली आई  | इस बार मुझे किसी ने जाने से रोका नहीं ,पर मेरे हाथ पर एक रुपया भी नहीं रखा | तीन महीने अन्नी -अप्पा के पास रही | बीच -बीच में विजयेन्द्र भी चक्कर लगा जाते | मुझे तो लगता फाइवस्टार और ढाबों का खा खा कर जब उकता जाते तो घर का खाना खाने यहाँ मेरे पास आ जाते | मेरा अस्तित्व उनकी जिस्मानी भूख मिटाने तक ही तो था | मुझे पता था उनके रिश्ते बाहर भी थे पर मैने कभी सवाल नहीं किया | करने का कोई फायदा भी न था |
तीन महीने बीत गये | अब मैने सोचा यही डिग्री कालेज में एडमिशन ले कर अपनी अधूरी पढ़ाई ही पूरी कर डालूं  | माँ भी यही चाहती थी |अन्नी से मैने सारे हालत बता दिये थे पर अप्पा से नहीं कह पाई | अन्नी ने जरुर अप्पा से बात की होगी तभी इस बार विजयेन्द्र को अलग ले जा कर बहुत देर तक मेरे बाबा बात करते रहे |
राघव ढाई साल का हो रहा था | उसे प्लेस्कूल में भी डालना था | अप्पा ने मुझे बुला कर कहा ,
 " बेटा मैने विजयेन्द्र जी से बात की है राघव की पढ़ाई के लिये तुम दोनों लखनऊ शिफ्ट हो जाओ, वहां स्कूल बहुत अच्छे है , फिर तुम  चाहना तो अपना भी फार्म भर देना "  फिर एक दिन अचानक विजयेन्द्र मुझे लेने आ गये  | वहां जाने के नाम पर मेरा दिल घबराने लगा |  फिर वही घुटन , वही माहौल 
 अन्नी ने मुझे समझा - बुझा कर भेज दिया | 

वापस आने पर कुछ दिन सब ठीक रहा | विजयेन्द्र भी कुछ बदल गये थे ,मेरा ख्याल रखने लगे |  वह कार की एजेंसी के लिये भाग दौड़ कर रहे थे | मंत्री पिता के संपर्क भी थे और धन की भी कमी नहीं थी | एजेंसी करीब करीब फाइनल हो चुकी थी , बस कुछ फार्मेल्टी बाकी थी जिसके लिये वह गये थे | उन्हें तीन - चार दिनों बाद वापस आना था काम अगर न हुआ तो और भी रुक सकते थे | इन तीन चार दिनों में ठाकुर कामेश्वर प्रताप सिंह ने मेरा जीना हराम कर दिया | अब तो उन्हें पापा जी कहना भी मुझे पाप लगता था | अब मुझे पता चल गया यहाँ कोई नहीं है जो मुझे बाघ के पंजे से बचा सके जो हैं भी उनमें इतनी हिम्मत नहीं  | मुझे जो करना है खुद करना है  |

अपनी शादी भी मै बचाना चाहती थी, पर लाख समझाने और बताने पर भी विजयेन्द्र मेरी बात नहीं मानते | कभी -कभी मुझे यह भी लगता ,यह सब समझ कर भी नहीं समझना चाहते | कैसे पति हैं जिसे पत्नी की इज्जत की भी परवाह नहीं -- यह सोच कर मुझे पति नाम लंबा -चौड़ा पुरुष एक रीढ़ विहीन केंचुआ लगता और घिन आने लगती , लेकिन वह मेरे बेटे का पिता था इसलिये मै उससे घृणा नहीं करना चाहती थी |
 इन दिनों मैने एक बात महसूस किया  जब किसी व्यक्ति का आदर- सम्मान आपके मन से खतम हो जाये तो उससे कोई भय भी नहीं लगता | वह पागलों की तरह मेरे पीछे पड़े थे मै उन्हें हिकारत से दुत्कार देती , यह जिद भी थी उस समर्थ पुरुष की जिसने जो चाह लिया वह हासिल कर लिया | एक कमजोर सी लड़की से वह कैसे हार मानते ? विजयेन्द्र वापस आ गये मैने बताया और उन्होंने सुन लिया | बस ...

इसी तरह चल रहा था | कार की एजेंसी फाइनल हो गई यह खबर मिलते ही विजयेन्द्र ख़ुशी से उछल पड़े |,काम मुश्किल था ,क्योंकि यह बड़े व्यापारिक घराने अपना बड़ा बिजनेस अपने बिरादरी या रिश्तेदारी में ही देते है , मंत्री जी का संपर्क न होता तो यह काम असंभव था , अब इस काम में पैसा अच्छा खासा लगना था -विजयेन्द्र ने पिता से बात की | उन्होंने साफ़ कह दिया , ...
 ” अपने श्वसुर से मंगवा लो तुम्हारी पत्नी को बड़ा घमंड है अपने बाप पर ’’
 यह सब सुन कर मै सुन्न हो गई |
विजयेन्द्र से मैने साफ़ कह दिया ,  ” मै अप्पा से पैसे नहीं मांगूगी "
 " मुझे तुम्हारे बाप का पैसा नहीं चाहिये ,पापा को भी नहीं ....पर तुमने पापा का अपमान किया है | तुम्हे उनके पैर पकड़ कर माफ़ी मांगनी होगी तुम्हारी वजह से  मेरे पापा मुझसे नाराज़ है | " 
" मेरी वजह से नाराज़ ? मैने किया क्या है वह सबके सामने बतायें मेरा अपराध क्या है? मैने उनकी कौनसी बात नहीं मानी .....विजयेन्द्र अगर तुम्हे लगता है  कि मै गलत हूँ ,मुझे तुम्हारे पापा की बात मान लेनी चाहिए तो चलो तुम खुद मुझे उनके कमरे में छोड़ आओ , मै एक पति की गैरत देखना चाहती हूँ तुम्हारी शक्ल देखना चाहती हूँ उस समय | " 
" बकवास बंद करो मेघा तुम बेहयाई पर उतर आई हो तुम खुद आवारा हो मेरे बूढ़े बाप पर इल्जाम लगा रही हो | " 
उस पल मुझे लगा यह मेरा पति है जिसे हर पल की खबर दी ,जो मेरी बात सुनी -अनसुनी कर जाता था आज मुझ पर इतना घिनौना इल्जाम लगा रहा है ---
मेरा दाम्पत्य जीवन पहले से ही तनाव भरा था अब बिखरने भी लगा --
विजयेन्द्र को मेरी जरूरत अपनी जिस्मानी भूख मिटाने भर के लिये ही थी |
उस रात जब वह मेरे करीब आये तो मैने उनका हाथ पकड़ लिया और कहा ,
-- " विजयेन्द्र क्या तुम मुझे प्यार नहीं करते ? " ---बिना एकपल सोचे उन्होंने कहा
" नहीं मुझे तुमसे कोई प्यार नहीं है " ----
" और राघव को  ? वो तो तुम्हारा बेटा है " ...
 " अरे बच्चे तो कुत्ते बिल्लियों के भी हो जाते है और प्यार व्यार सब फ़िल्मी बातें हैं  | मै तो शादी ही नहीं करना चाहता था ,वह तो पापा की जिद थी इसलिए करना पड़ा वरना जब बाज़ार में दूध मिल जाये तो गाय कौन पलेगा , एक मुसीबत मोल ले ली मैने शादी कर के "  मैने सोचा भी नहीं था विजयेन्द्र ऐसा सोचते है बहुत दुःख हुआ मुझे मैने उनसे साफ़ कह दिया " अब तुम मुझे छूना भी नहीं | बिना प्रेम के यह रिश्ते कैसे  ? मै वेश्या नहीं हूँ जो शादी का लाइसेंस ले कर तुम्हारे साथ अय्याशी करूँ | " मेरी बात सुनकर व्यंग से हँसे विजयेन्द्र और तल्खी से बोले -
 " मेरी बात छोड़ो अपनी सोचो तुम ही एक दिन आओगी मेरे पास नाक रगड़ने इसके लिये मै भी देखूंगा कब तक रहती हो ऐसे | "  उस दिन से हमारे बीच सब ख़तम हो गया | हम कमरा शेयर करते , बेड भी शेयर करते पर हमारे बीच एक  गहरी खाई बन गई  थी | 
बस राघव एक धागा था हमारे रिश्ते का वरना हमारे बीच अब  तो जिस्मानी रिश्ते भी नहीं रहे | हमारे बीच वह आखिरी रात थी जब विजयेन्द्र नें  मुझसे जबरदस्ती करने की कोशिश की और मेरे मना करने पर बिफ़र गये | जोर - जोर से चीख कर मुझे बुरा भला कहने लगे ,
 " तुम्हारी जैसी खूबसूरत औरतें चंद रुपयों में मिल जाती है ...इस गुमान में मत रहना तुम्हारे बगैर काम नहीं चलेगा --इतना गुरुर किस बात का -आखिर और काम ही क्या है तुम्हारा " 
 सन्न सी रह गई मै पल भर को अपने स्त्रीत्व का इतना घोर अपमान |
उफ़ घिन आ गई मुझे और मै क्रोध से तिलमिला उठी | उनकी तरफ एक हिकारत भरी नजर डाल के कहा ,
 " सुनो मुझे तो तुम जैसा नहीं चाहिए ... कोई पैसे भी नहीं खर्च करने पड़ेंगे | 
तुम जैसे बल्कि तुमसे बेहतर मर्द तो फ्री में उपलब्ध होते हैं  हर जगह | घरबाहर आसपडोस हर कहीं |
फिर भी नहीं चाहिए वरना तुममे और मुझमें क्या फर्क रह जाएगा ? "
कह कर व्यंग से मुस्करा दी पर शूल सा गड गया | मन में बहुत पीड़ा हुई  ,किंतु उसकी एक रेख तक चेहरे पर नहीं आने दी | मुस्कराती रही , और बह बुरा भला कहते रहे ,
 " आखिर किस बात का घमंड है तुम्हे बेशर्मी से जुबान चलाना ही सीखा है 
औरत हो औरत की तरह रहो मर्द बनने की कोशिश मत करना " 
" सुनो मुझे मर्द बनने का कोई शौक नहीं -मुझे अभिमान है 
मै औरत हूँ और हर जन्म में औरत ही बनना चाहूंगी |" 
सब खतम हो गया अब हमारे बीच यह आखिरी रात थी 
और आखिरी झगड़ा भी | मैने अपनी सारी पैकिंग की | रात को ही अप्पा को फोन किया |
सुबह राघव को ले कर मै वापस आ गई , बीती रात न मै सोई न मेरे माँ बाप ,
बेटी का टूटता घर उनके लिये बहुत बड़ा सदमा था | इस सब के लिए बाबा खुद को 
दोषी मानते थे | मैने अपने अप्पा से कमरा बंद कर के बात की आज एक बेटी अपने बाबा से वह सब बता रही थी जो उस पर गुजरी थी | मेरी नज़रें नीची थी और अप्पा की आँखे भरी ,
 " कितना दर्द सहा मेरी फूल सी बेटी ने | अब तुम जो फैसला लेना चाहो मै तुम्हारे साथ हूँ , लेकिन बेटा अपनी ही बेटी का घर तोड़ने के लिये मैं  तुम्हारे साथ कोर्ट कचहरी नहीं जा पाऊंगा | " 
मै अपने तीन साल के बच्चे को लेकर अप्पा के लखनऊ वाले घर आ गई | अन्नी  ने बहुत कहा पर मै नहीं मानी , अलग रहने का निर्णय मेरा था और राघव मेरी ज़िम्मेदारी थी उसे मै ही निभाऊँगी | मेरे पास सिर्फ बैंक में थोड़े पैसे और कुछ इंदिरा बचत पत्र थे | थोड़े बहुत जेवर और कुछ नहीं | मेरा ग्रेजुएशन भी पूरा नहीं हुआ था ,नौकरी कहाँ मिलती  | मैने छोटे -छोटे बहुत सारे कोर्सेस किये और अपनी एक सहेली के फ़िनिशिंग स्कूल में लड़कियों को सिखाने लगी | घर सजाने का शौक मुझे हमेशा से था | यह एक ग्रूमिंग इंस्टीट्यूट था यहाँ मुझे कोई परेशानी नहीं हुई|  मेरे कई खर्चे यही से निकल जाते ,बाकी बच्चों की ट्यूशन से पूरा करती  |,जिंदगी में खालीपन तो था पर सुकून भी था ,हम माँ बेटे खुश थे | मेरे लिए मेरी पूरी कायनात मेरा बेटा था ,पर साल भर बीतते -बीतते विजयेन्द्र यहाँ भी आ धमके | उनका कहना था मै अभी उनकी कानूनी पत्नी हूँ , या तो मै उनके साथ चलूं नहीं तो वह यहीं रहेंगे | वह जब भी आते गाली गलौज करते ,बस हाथ नहीं उठाया | यह अप्पा का घर था यहाँ उनके नौकर ,ड्राइवर सब थे |,मुझे बड़ी शर्मिंदगी होती | मेरा मानसिक तनाव बढ़ता जा रहा था ,आख़िरकार तंग आ कर मैने कोर्ट में डाइवोर्स फ़ाइल कर दिया | नोटिस मिलते ही बाप -बेटे बौखला गये | अब शुरू हुआ मुझ पर प्रताड़ना का दौर | मेरे खिलाफ कई षड्यंत्र रचे गये | मुझे चरित्रहीन साबित करने की कोशिश की |मेरी  घृणा बढती गई हर इस कुत्सित प्रयास पर | आखिर मै उनके बेटे की माँ भी थी | और ,कोई बाप अपने बेटे की माँ पर ऐसा लांछन कैसे लगा सकता है | मेरी वकील ने कोर्ट में मेरे और राघव के लिए भरण पोषण की रकम की मांग की साथ ही मेरा स्त्री धन , मेरे सारे जेवर लौटाने को कहा , जो इनके पिता को नामंजूर था | वह पचा नहीं पा रहे थे कोई लड़की उनका वैभव ठुकरा कर जा भी सकती है ! तारीख पर तारीख पड़ती रही | मुझे फोन पर धमकियां भी मिलती रहीं | मेरा बेटा छीनने की बात हुई | उनका स्तर यहाँ तक गिर गया कि मुझ तक  कहलवाया दस लाख ले लो और राघव को भेज दो |
मैने फोन करके विजयेन्द्र से कहा , " अपने पापा से कह दो मै किराये की कोख नहीं चलाती न ही बच्चे बेचने का धंधा करती हूँ | "  इन सब का असर मेरे बच्चे पर पड़ रहा था | यह लोग उसे कोर्ट बुलाने की तैयारी में लगे थे | मै नहीं चाहती थी इतना छोटा बच्चा कोर्ट जाये और माँ बाप की किच -किच देखे | मैने मन ही मन एक फैसला किया | किसी को नहीं बताया ,और अगली तारीख पर कोर्ट में जज के सामने अपनी हर मांग वापस ले लिया सिवा बेटे के | मुझे कुछ नहीं चाहिए यह कोर्ट में लिख कर दे दिया | जैसे ही मैने अपना स्त्री धन ,मेंटेनेस सब ड्रॉप किया तुरंत ही विजयेन्द्र ने डाइवोर्स पेपर पर दस्तखत कर दिये | जज ने उनसे बेटे के बारे में सवाल किया तो उन्होंने कहा , ” राघव को माँ को दे दीजिये | मुझे जब मिलना होगा मिल लूँगा | "
मुझे यह तो पता था विजयेन्द्र  को मुझसे कोई लगाव नहीं बस एक स्त्री देह भर थी उनके लिए जिसे मेंटेन करके वह अपनी भूख मिटाते ,पर यह नहीं जानती थी बेटे से भी कोई प्रेम नहीं | कितनी आसानी से कह दिया मिल लूँगा जब कभी मन होगा ,और दस्तखत कर दिया | एक टीस उठी मन में ,सब ख़तम हो गया अब | अब मेरा सारा जीवन राघव तक ही सिमट गया | समय गुजरता गया  | अपने नाना की देख- रेख में राघव बड़ा होने लगा |अप्पा ही उसके गार्जियन हैं इस साल उसनें बारहवीं की परीक्षा दी है ,वह सिविल सर्विसेस में जाना चाहता है उसे राजनीत से एलर्जी सी है  करीब पन्द्रह दिन पहले मुझे जब पता चला कि राघव की दादी बीमार है मैने उसे वहां भेजने का फैसला किया | बीते सालों में कई बार उन्होंने पोते को बुलवाया जरुर था पर मैने ही नहीं जाने दिया ,डर जाती अभी छोटा है न आने दिया तो ? कहीं बहका लिया तो ?  मै तो मर ही जाउंगी | पर अब यह बड़ा हो गया है इसे वहां अपनी जड़ों में जाना चाहिए , एक बार खुद से देखना सोचना चाहिए | मैने राघव से पूछा भी " बेटू तुम अपनी दादी अम्मा को देखने जाओगे ? वह बीमार है तुम्हे याद कर रही है " ------
वह एकटक मेरा मुंह देखता रहा मानो मेरा चेहरा पढने की कोशिश कर रहा हो -
फिर कुछ सोच कर बोला , " चला जाऊं देख आऊं ? आप जैसा कहो अम्मी दादी अम्मा तो अब बूढी हो गई होंगी न ? तुम बताओ अम्मी  | " ---- मैने बेटे का मन पढ़ लिया वह जाना चाहता था |
 " चले जाओ बेटे अगले हफ्ते का टिकिट करवा लेते है | " --- और सारी तैयारी कर के कल उसे ट्रेन में बिठा आई | 
 तब से मन बहुत बेचैन है | सारी रात सो नहीं सकी सुबह हो गई है अब तो -- पता नहीं कब पहुंचेगा |
कोई उसे लेने टाइम से पहुंचा या नहीं ,, इसी सोच विचार में डूबी थी कि ...
अचानक फोन की घंटी घनघना उठी | मैने झपट कर फोन उठाया दूसरी तरफ राघव ही था ,
 " हैलो अम्मी   ,मै पहुँच गया हूँ यहाँ मुझे लेने कार  भी आ गई है  | तुम परेशान मत हो प्रभात चाचा आयें है , वो ही तो मुझे पहचानते है अपना ख्याल रखना  , खाना जरुर खाना मुझे पता है तुमने कल से कुछ नहीं खाया होगा  | "
मेरा गला भर आया आवाज़ ही नहीं निकली बस इतना ही कहा 
 “ठीक है मेरे बच्चे तुम बस फोन करते रहना “
अन्नी जग गई थी वाशरूम में थी निकलते ही मुझसे पूछा , " मेघा राघव का फोन था न वह ठीक से पहुँच गया ? " 
" हां अन्नी वह पहुँच गया अब उसकी आवाज़ सुनकर ठंडक पड़ी कलेजे को लो माँ चाय पीओ "-
राघव को एक हफ्ता हो गया  | मै सुबह - शाम फोन कर के उसकी खैरियत लेती | कभी उससे बात हो जाती तो कभी पता चलता उसे उसके बाबा शापिंग पर ले गये है या कहीं बाहर गए है सब ,| कभी लगता सच कह रहे हैं  वो लोग तो कभी लगता मेरा बेटा छीन रहे है पैसे की चमक - दमक दिखा कर |राघव अब उम्र की उस दहलीज़ पर था जहाँ वह न छोटा बच्चा था न ही समझदार युवा  | कच्ची उम्र में यह सब बहकने को काफी होता है | मुझे लगा मैने बहुत बड़ी गलती कर दी | अन्नी सही कहती है उनका पैसा मेरे बेटे को भरमा लेगा |मैने राघव को पालने में कोई कमी नहीं रखी थी उसे सब कुछ दिया था पर एक सीमा में | वहां तो कोई सीमा ही नहीं है ----
इसी ऊहापोह में पड़ी थी सर भारी हो रहा था  | आज एक बार भी बात नहीं हुई थी -
तभी मेरा सेल फोन बज उठा राघव का फोन था नाराज़ हो रहा था मुझसे ,
 " तुमने आज मुझे फोन क्यों  नहीं किया अम्मी भूल गई क्या मुझे यहाँ भेज कर  ?"
वह मुझे छेड़ रहा था | फिर बहुत सारी बातें की सबके बारे में मै चुपचाप सुनती रही |
फोन काटने से पहले उसने पूछा ---
 " अम्मी एक बात बताओ तुम इस आदमी के साथ इतने दिन भी कैसे रही तुम्हे तो इन्हें दस दिन में ही छोड़ देना चाहिए था " 
 बेटे के इस वाक्य ने मानो मेरे बरसों पहले लिए फैसले पर आज मुहर लगा दी |


सोमवार, 14 अगस्त 2017

मैं कितना नादान था। किशोर चौधरी




जीने के उपक्रम में 
लम्हा लम्हा मृत्यु सिसकती है 
दृढ़ता प्रश्नों के लिबास में 
चेहरे पर पानी फेरती है 
शायद  ... 
शायद कोई जवाब मिल जाए !!!


मैं कितना नादान था।



आवाज़ का कोई धुंधला टुकड़ा भीतर तक आता है. उस बुझी हुई आवाज़ वाले टुकड़े से अक्सर रोना सुनाई देने लगता है. मैं वाशरूम में एक जगह ठहर जाता हूँ. रोना धीरे सुनाई पड़ता है मगर मन तेज़ी से बुझने लगता है. शावर से पानी गिरता रहता है. वाशरूम की दीवारों को देखने लगता हूँ. वे सुन्दर हैं. इनकी टाइल्स नयी और चमकदार है. दीवार पर लगा पंखा भी अच्छा है. छत पर ज़रूर कहीं कहीं पानी की बूंदें सूख गयी हैं. 

पहले माले पर कुछ नयी आवाजें आने लगती हैं. पहले की उदास आवाज़ चुप हो जाती है. नयी आवाज़ का शोर चुभने लगता है. आँखें बंद करके लम्बी साँस लेना चाहता हूँ. भीगे सर को पंखे के सामने कर देता हूँ. इंतज़ार. और इंतज़ार मगर बदन ठंड से नहीं भर पाता. कुछ देर बाद पाता हूँ कि आवाज़ें बंद हो गयी हैं. भीगे बदन बाहर आता हूँ. 

दुनिया वहीँ है.

उदासी की आवाज़ों का झुण्ड धीरे-धीरे क्षितिज से इस पार बढ़ता जाता है. जैसे शाम की स्याही बढती है. जैसे मुंडेरों से उतर कर नींव के उखड़े पत्थरों तक चुप्पी आ बैठती है. नीली रौशनी वाला तारा टूटता है. जैसे किसी ने एस ओ एस भेजा है कि किसी ने संकेत किया है बस यहीं दाग दो. 
* * *

मेरी आँखों में 
मेरे होठों पर 
मेरे चश्मे के आस पास 
तुम्हारी याद की कतरनें होनी चाहिए थी.
लेकिन नहीं है.

ऐसा हुआ नहीं या मैंने ऐसा चाहा नहीं 
जाने क्या बात है?
* * *

मैं नहीं सोचता हूँ 
गुमनाम ख़त लिखने के बारे में.
मेरे पास कागज़ नहीं है 
स्याही की दावत भी 
एक अरसे से खाली पड़ी है.

एक दिक्कत ये भी है 
कि मेरे पास एक मुकम्मल पता नहीं है.
* * *

कल रात तुम्हें शुभ रात कहने के 
बहुत देर बाद तक नींद नहीं आई.

मैं सो सकता था 
अगर 
मैंने ईमान की किताबें पढ़ीं होती 

मुझे किसी कुफ़्र का ख़याल आता 
मैं सोचता किसी सज़ा के बारे में 
और रद्द कर देता, तुम्हें याद करना.

मैं अनपढ़ तुम्हारे चेहरे को 
याद में देखता रहा 
न कुछ भूल सका, न सो पाया.

कल रात तुम्हें शुभ रात कहने के बहुत देर बाद तक.
* * *

तुमको 
पहाड़ों से बहुत प्रेम था.

तुम अक्सर मेरे साथ 
किसी पहाड़ पर होने का सपना देखती थी

ये सपना कभी पूरा न हो सका 
कि पहले मुझे पहाड़ पसंद न थे 
फिर तुमको मुझसे मुहब्बत न रही.

आज सुबह से सोच रहा हूँ 
कि तुम अगर कभी मिल गयी 
तो ये किस तरह कहा जाना अच्छा होगा?

कि मैं 
एक पहाड़ी लड़की के प्रेम पड़ गया हूँ.

फिर अचानक डर जाता हूँ 
अगर तुमको ये बात मालूम हुई 
तो एक दूजे से मुंह फेरकर जाते हुए 
हम ऐसे दिखेंगे 
जैसे पहाड़ गिर रहा हो 
रेत के धोरे बिखर रहे हों 
समन्दर के भीतर कुछ दरक रहा हो.

और आखिरकार मैं पगला जाता हूँ 
कि मैंने उस पहाड़ी लड़की को अभी तक कहा नहीं है 
कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ.

हमारे बीच बस इतनी सी बात हुई है 
कि एक रोज़ 
वह मेरे घुटनों पर अपना सर रखकर रोना चाहती है.
* * *

मैं कितना नादान था।

हर बात को इस तरह सोचता रहा 
जैसे हमको साथ रहना है, उम्रभर।

दफ़अतन आज कुछ बरस बाद 
हालांकि तुम मेरे सामने खड़ी हो।

तुमको देखते हुए भी 
नहीं सोच पा रहा हूँ 
कि एक रोज़ तुम अपने नए प्रेमी के साथ 
इस तरह रास्ते मे मिल सकती हो।

तुम पूछा करती थी 
क्या हम कभी एक साथ हो सकते हैं?

मैं हंसकर कहता- 
कि क्या नहीं हो सकता इस दुनिया में।

अब सोचता हूँ 
कि सचमुच क्या नहीं हो सकता इस दुनिया में।

मैं कितना नादान था।

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

एक लम्हा घर, एक लम्हा बेघर



कुछ परिंदों के ना घर होते हैं ना घोंसले , बस पर होते हैं और हौसले ~ © अनुपम ध्यानी






मन में कोहरा
कोहराम हृदय में
ना ही मन में राम बसा है
ना ही मेरे श्याम हृदय में
किंतु फिर भी पुलकित है मन
मानो
है कोई धाम हृदय में
यह शीश जो कभी झुका नहीं
नतमस्तक है,
जैसे हो कोई प्रणाम हृदय में
बस नृत्य है
दौड़ते लहु में
ना है कोई विराम हृदय में
पर साँसों की इस उथल पुथल में
स्थिर सा है कोई ग्राम हृदय में
नित्य शौर्य का उदगम मन में
नित्य भय की शाम हृदय में
एकाग्र है मन, शांत चित्त भी
फिर भी ना कोई विश्राम हृदय में
मन है बगुला, चुप चाप खड़ा है
पर है कोई संग्राम हृदय में
यह प्रेम नही तो क्या है राही
उसका ही है यह काम हृदय में
मन में जो यह कोहरा है और
जो है ये कोहराम हृदय में
मन में जो यह कोहरा है और
जो है ये कोहराम हृदय में


रविवार, 21 अगस्त 2016

आसान था वो सफर....!!!




छन्न से एक कलम लम्हों से गिरी
बोली -
"प्रकाश की अनगिनत सुइयों से
समन्दर अपने सपने गढ़ता है" 

कलम अंजना टंडन जी की  ... जो कहती है ,
अकेलेपन को भरने के लिए बहुत से कोने तलाशने होते हैं. .......
एकांत तो भीड़ में भी मिल जाता है. .....






उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते
पहुँच गई थी
उस घाट तक , जहाँ
निर्लिप्तता का एकान्त था,
सरोवर में व्याकुलता नहीं
एक निस्संग तल्लीनता थी, उस पल में अटकी थी सालती सी
एक लुढ़कते आत्मविश्वास की गंध, किनारे पर खड़े बरगद के
शुष्क पत्ते निस्पृहता से
पानी की कगार पर
डूबक डूबक के
अंतिम यात्रा पर थे, दूर दूर तक फैली थी एक
उदास धूप की पीली सुगंध, इसके पहले कि
अवसाद का विलाप
मुझ पर आलम्बित होता, सुनाई दिया
जल की सतह पर
फूटते बुलबुलों का हास्य, ये कैसा एक
हवा का ताजा झोंका, शायद
जीवन था कहीं तली में,
बस ज़रूरत थी
फेफड़े भर के
एक
गहरी डुबकी की, इस छोर पर मैं
मंथर ही सही
पर गतिमान हो
निगल लेती हूँ
वो अटकते
हलक के काँटें, उलटी कलाई से आँखें पौंछ
समुन्दर के वक्षस्थल को
सौंप देती हूँ
अपनी कृशकाया सी नाव , कितना कुछ पाना है
कितना कुछ मिलता है
एक और कोलम्बस जन्मता है, दूर तक फैली थी
आमंत्रित करती
गुनगुनाती धूप,
कितना आसान था वो सफर....!!!

सोमवार, 21 सितंबर 2015

देवदार पे बैठी सफ़ेद चिड़िया




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मुकेश पांडे 
http://mukeshpandey87.blogspot.in/




मैं तुम्हें सोचता हूँ और सफ़ेद हो जाता हूँ,
जैसे किसी देवदार पे बैठी
सफ़ेद चिड़िया एकटक आकाश ताकती रही
और अब इत्मीनान से एक धवल उड़ान भरती है।
जैसे किसी मादक देह की महक से
दूर तक खिल रही हों वादियां,
या किसी बीचों-बीच पत्थर पर
वे श्वेत वस्त्र पवित्र कर देते हों तमाम झरने।
सुनो मैं दूर निकल आया हूँ, बहुत दूर...
यहाँ इस सफ़ेद झील के किनारे
एक दूधिया वृक्ष के ठीक ऊपर
कुछ उजले तारों के छींटे पड़ें हैं,
वहां उस तरफ झील में एक सफ़ेद नाव पर दो प्रेमी बैठे हैं,
कुछ स्वर फूट रहे हैं, कुछ धुनें बह रही है
वो खिलखिलाहट, वो सफेदी चांदनी में घुल रही है
और चाँद अब सफ़ेद हो रहा है..
मैंने अक्सर महसूस किया है कि यदि
प्रेम में साफगोई हो तो वह सफ़ेद हो जाता है।
और देखो
अब एक सफ़ेद साफ़ हवा मुझे घेरे हुए है
जैसे कोई बेदाग़ सी चादर मुझ पे लपेटे हुए है।
ये मीठी बूंदों की रात रानी मेरी देह पर झर रही है,
मेरे होंठों के सेकों से धौलाधार पिघल रहे हैं।
धीरे-धीरे सभी घाव भर रहे हैं
एक नींद बन आई है।
अनंत निर्वात पर चौंधियाता सफेद भर गया है,
हर तरफ से यहाँ अब धुंध घिर आई है
गाढ़ी सफ़ेद...
आह!
"शांति" अगर कहीं प्रत्यक्ष रूप से देखी गयी होगी
तो वह किसी कोमल सीप में रखा उज्जवल मोती रहा होगा,
जिसे कुछ कहना नहीं होता बस उस गर्भ में रहना होता है।
प्रेमी एक असली बैरागी होता है,
प्रेमिका एक माँ जिसे उसकी प्रगाढ़ता में उसे पढ़ना होता है।
और सुकून.....
यह एक सूखा हुआ पत्ता है
जिसे वृक्ष से झर कर उसके कमलों में रहना है।
यह एक झरा हुआ पंख है
जो आकाश से उतरा है और मेरी हथेली पे ठहरा है।
सुनो मैं दूर निकल आया हूँ, बहुत दूर..
यहाँ हर तरफ प्रार्थनाएं हैं
और शब्दों ने अपने हिस्से का प्रकाश खोज लिया है,
यहाँ दूर तक उजाला फैला हुआ है.
सफ़ेद...
यहाँ एक श्वेत वस्त्रधारी ब्राह्मणी गुलबहार चुन रही है,
और उस देवदार पर वो सफ़ेद चिड़िया आकाश ताक रही है..
सुनो मैंने महसूस किया है कि
सफ़ेद इन्द्रधनुष का एक ज़रूरी रंग होगा।

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

चाहत जीने की





दिगम्बर नासवा 
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स्वप्न स्वप्न स्वप्न, सपनो के बिना भी कोई जीवन है ...


बेतरतीब लम्हों की चुभन मजा देती है ... महीन कांटें अन्दर तक गढ़े हों तो उनका मीठा मीठा दर्द भी मजा देने लगता है ... एहसास शब्दों के अर्थ बदलते हैं या शब्द ले जाते हैं गहरे तक पर प्रेम हो तो जैसे सब कुछ माया ... फूटे हैं कुछ लम्हों के बीज अभी अभी ...

टूट तो गया था कभी का
पर जागना नहीं चाहता तिलिस्मी ख्वाब से
गहरे दर्द के बाद मिलने वाले सकून का वक़्त अभी आया नही था

लम्हों के जुगनू बेरहमी से मसल दिए
कि आवारा रात की हवस में उतर आती है तू
बिस्तर की सलवटों में जैसे बदनाम शायर की नज़्म
नहीं चाहता बेचैन कर देने वाले अलफ़ाज़
मजबूर कर देते हैं जो जंगली गुलाब को खिलने पर

महसूस कर सकूं बासी यादों की चुभन
चल रहा हूँ नंगे पाँव गुजरी हुयी उम्र की पगडण्डी पे
तुम और मैं ... बस दो किरदार
वापसी के इस रोलर कोस्टर पर फुर्सत के तमाम लम्हों के साथ

धुंए के साथ फेफड़ों में जबरन घुसने की जंग में
सिगरेट नहीं अब साँसें पीने लगा हूँ
खून का उबाल नशे की किक से बाहर नहीं आने दे रहा

काश कहीं से उधार मिल सके साँसें
बहुत देर तक जीना चाहता हूँ जंगली गुलाब की यादों में 

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

असफल प्रेम के बाद









अंजू शर्मा 
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जेहन में घुली नीम सी कड़वाहटें
वजूद में बढ़ती उदासियों की गलबहियां
अवसाद से शामों की बढ़ती मुलाकातें
ये तय करना मुश्किल है पहले कौन मरता है
प्रेम या सपने

प्रेम की दुनिया में पहले कदम और
जीवन में बसंत की आमद
का हर बार समानार्थी होना
जरूरी तो नहीं

वैवाहिक जीवन का
अगर होता कोई गेट पास
तो अनुभवों का माइक्रोस्कोप भी नहीं ढूंढ
सकता इस पर गारंटी या वारंटी

यह हर बार मुमकिन नहीं
कि मधुमास सदा घोल दे जीवन में
मधु भरे लम्हों का स्वाद
रिस जाता है मधु कलश
कभी कभी मास बीतने से ठीक पहले

प्रेम बदलता है समझौतों
की अंतहीन फेहरिस्त में
उम्मीदें लगा लेती हैं
छलावे का मुखौटा
सपने उस ट्रेन से हो जाते हैं
जो रेंगती है अनिश्चितता की पटरी पर
ढोते हुये तमाम डर और शंकाएँ
और नज़रों के ठीक सामने होते हैं
लौटने के तमाम धूमिल होते रास्ते

इस सफर में हर रात थोड़ा थोड़ा
पिघलती है मोम बनकर एक औरत
चुप्पी की कायनात से बाहर एक-एक कदम बढ़ाती
वह एक दिन झड़का देती है आत्मा से चिपकी बेबसी और लाचारी
आईने में खुद को चीन्हती
एक दिन उतार फेंकती है
स्वांग का लबादा
अपने भीतर से उगल देती है सारी आग
कि उसके हवाले कर सके उस ढेर को
जिन्हे कभी प्रेमपत्र कहा था

ठोकर पर रखती है कायनात
अपनी सालों पुरानी तस्वीर से बोलती है
"गुड मॉर्निंग"
तलाशती है अपने नाम का एक उगता सूरज
थामती है एक बड़ा सा कॉफी मग
और जहां खत्म हो जाना था दुनिया को
वही से शुरू होता है एक औरत का
अपना संसार ............