सोमवार, 21 सितंबर 2015

देवदार पे बैठी सफ़ेद चिड़िया




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मुकेश पांडे 
http://mukeshpandey87.blogspot.in/




मैं तुम्हें सोचता हूँ और सफ़ेद हो जाता हूँ,
जैसे किसी देवदार पे बैठी
सफ़ेद चिड़िया एकटक आकाश ताकती रही
और अब इत्मीनान से एक धवल उड़ान भरती है।
जैसे किसी मादक देह की महक से
दूर तक खिल रही हों वादियां,
या किसी बीचों-बीच पत्थर पर
वे श्वेत वस्त्र पवित्र कर देते हों तमाम झरने।
सुनो मैं दूर निकल आया हूँ, बहुत दूर...
यहाँ इस सफ़ेद झील के किनारे
एक दूधिया वृक्ष के ठीक ऊपर
कुछ उजले तारों के छींटे पड़ें हैं,
वहां उस तरफ झील में एक सफ़ेद नाव पर दो प्रेमी बैठे हैं,
कुछ स्वर फूट रहे हैं, कुछ धुनें बह रही है
वो खिलखिलाहट, वो सफेदी चांदनी में घुल रही है
और चाँद अब सफ़ेद हो रहा है..
मैंने अक्सर महसूस किया है कि यदि
प्रेम में साफगोई हो तो वह सफ़ेद हो जाता है।
और देखो
अब एक सफ़ेद साफ़ हवा मुझे घेरे हुए है
जैसे कोई बेदाग़ सी चादर मुझ पे लपेटे हुए है।
ये मीठी बूंदों की रात रानी मेरी देह पर झर रही है,
मेरे होंठों के सेकों से धौलाधार पिघल रहे हैं।
धीरे-धीरे सभी घाव भर रहे हैं
एक नींद बन आई है।
अनंत निर्वात पर चौंधियाता सफेद भर गया है,
हर तरफ से यहाँ अब धुंध घिर आई है
गाढ़ी सफ़ेद...
आह!
"शांति" अगर कहीं प्रत्यक्ष रूप से देखी गयी होगी
तो वह किसी कोमल सीप में रखा उज्जवल मोती रहा होगा,
जिसे कुछ कहना नहीं होता बस उस गर्भ में रहना होता है।
प्रेमी एक असली बैरागी होता है,
प्रेमिका एक माँ जिसे उसकी प्रगाढ़ता में उसे पढ़ना होता है।
और सुकून.....
यह एक सूखा हुआ पत्ता है
जिसे वृक्ष से झर कर उसके कमलों में रहना है।
यह एक झरा हुआ पंख है
जो आकाश से उतरा है और मेरी हथेली पे ठहरा है।
सुनो मैं दूर निकल आया हूँ, बहुत दूर..
यहाँ हर तरफ प्रार्थनाएं हैं
और शब्दों ने अपने हिस्से का प्रकाश खोज लिया है,
यहाँ दूर तक उजाला फैला हुआ है.
सफ़ेद...
यहाँ एक श्वेत वस्त्रधारी ब्राह्मणी गुलबहार चुन रही है,
और उस देवदार पर वो सफ़ेद चिड़िया आकाश ताक रही है..
सुनो मैंने महसूस किया है कि
सफ़ेद इन्द्रधनुष का एक ज़रूरी रंग होगा।

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

चाहत जीने की





दिगम्बर नासवा 
मेरा फोटो
स्वप्न स्वप्न स्वप्न, सपनो के बिना भी कोई जीवन है ...


बेतरतीब लम्हों की चुभन मजा देती है ... महीन कांटें अन्दर तक गढ़े हों तो उनका मीठा मीठा दर्द भी मजा देने लगता है ... एहसास शब्दों के अर्थ बदलते हैं या शब्द ले जाते हैं गहरे तक पर प्रेम हो तो जैसे सब कुछ माया ... फूटे हैं कुछ लम्हों के बीज अभी अभी ...

टूट तो गया था कभी का
पर जागना नहीं चाहता तिलिस्मी ख्वाब से
गहरे दर्द के बाद मिलने वाले सकून का वक़्त अभी आया नही था

लम्हों के जुगनू बेरहमी से मसल दिए
कि आवारा रात की हवस में उतर आती है तू
बिस्तर की सलवटों में जैसे बदनाम शायर की नज़्म
नहीं चाहता बेचैन कर देने वाले अलफ़ाज़
मजबूर कर देते हैं जो जंगली गुलाब को खिलने पर

महसूस कर सकूं बासी यादों की चुभन
चल रहा हूँ नंगे पाँव गुजरी हुयी उम्र की पगडण्डी पे
तुम और मैं ... बस दो किरदार
वापसी के इस रोलर कोस्टर पर फुर्सत के तमाम लम्हों के साथ

धुंए के साथ फेफड़ों में जबरन घुसने की जंग में
सिगरेट नहीं अब साँसें पीने लगा हूँ
खून का उबाल नशे की किक से बाहर नहीं आने दे रहा

काश कहीं से उधार मिल सके साँसें
बहुत देर तक जीना चाहता हूँ जंगली गुलाब की यादों में 

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

असफल प्रेम के बाद









अंजू शर्मा 
My Photo



जेहन में घुली नीम सी कड़वाहटें
वजूद में बढ़ती उदासियों की गलबहियां
अवसाद से शामों की बढ़ती मुलाकातें
ये तय करना मुश्किल है पहले कौन मरता है
प्रेम या सपने

प्रेम की दुनिया में पहले कदम और
जीवन में बसंत की आमद
का हर बार समानार्थी होना
जरूरी तो नहीं

वैवाहिक जीवन का
अगर होता कोई गेट पास
तो अनुभवों का माइक्रोस्कोप भी नहीं ढूंढ
सकता इस पर गारंटी या वारंटी

यह हर बार मुमकिन नहीं
कि मधुमास सदा घोल दे जीवन में
मधु भरे लम्हों का स्वाद
रिस जाता है मधु कलश
कभी कभी मास बीतने से ठीक पहले

प्रेम बदलता है समझौतों
की अंतहीन फेहरिस्त में
उम्मीदें लगा लेती हैं
छलावे का मुखौटा
सपने उस ट्रेन से हो जाते हैं
जो रेंगती है अनिश्चितता की पटरी पर
ढोते हुये तमाम डर और शंकाएँ
और नज़रों के ठीक सामने होते हैं
लौटने के तमाम धूमिल होते रास्ते

इस सफर में हर रात थोड़ा थोड़ा
पिघलती है मोम बनकर एक औरत
चुप्पी की कायनात से बाहर एक-एक कदम बढ़ाती
वह एक दिन झड़का देती है आत्मा से चिपकी बेबसी और लाचारी
आईने में खुद को चीन्हती
एक दिन उतार फेंकती है
स्वांग का लबादा
अपने भीतर से उगल देती है सारी आग
कि उसके हवाले कर सके उस ढेर को
जिन्हे कभी प्रेमपत्र कहा था

ठोकर पर रखती है कायनात
अपनी सालों पुरानी तस्वीर से बोलती है
"गुड मॉर्निंग"
तलाशती है अपने नाम का एक उगता सूरज
थामती है एक बड़ा सा कॉफी मग
और जहां खत्म हो जाना था दुनिया को
वही से शुरू होता है एक औरत का
अपना संसार ............

रविवार, 23 अगस्त 2015

तुम्हारे होने का मतलब









नीरज पाल
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रचना मेरे लिए एक महत्व रखती है...और रचना सही मायने में रचना नहीं बल्कि क्षणिक आवेगों और संवेदनाओं का बहाव होता है. इसलिए अनुरोध है कि इसे मेरा व्यक्तित्व न समझें.




तुम्हारे होने का मतलब.......
ठीक वैसा ही है,
जैसे कड़कती ठंढ में अलाव की आंच.
(कुछ होने जैसा और बहुत कुछ ना होने जैसा, यह कुछ वैस ही है जैसे एक बड़े शहर के स्काइलाइन के ठीक ऊपर खड़े होकर चमकती रोशनियों के पार, फैली झील के ऊपर लिपटी धुंध, और जहाँ अँधेरा होने के बावजूद, चमकती चांदनी में शफ्फाक धुंध का सफ़ेद होकर चमक जाना)
तुम्हारे होने का मतलब,
यह भी है, 
कि खिली गुलदाउदी में पड़ी ओस का मोतियों सा चमक जाना,
(कुछ ऐसा भी जैसे उस फोटोग्राफर को बेस्ट फोटोग्राफर का अवार्ड मिलना सबसे सुन्दर फोटो खींचने पर, उस फोटो पर जिसमे उसने गर्द से भरी दिल्ली की भोर में प्रदुषण के गुब्बारों को कैद किया था, लेकिन वहीँ बगल के कृत्रिम झील मं छोड़ आया था, दूर देश से उड़ आये उस सैलानी साइबेरियाई पक्षी को, जो कैद हो जाना चाहता था उसके काले लेंसों में हमेशा के लिए)
तुम्हारे होने का मतलब,
यह कतई नहीं कि प्रेम अपने उफान पर है,
बल्कि ऐसा जैसे प्रेम का अंकुरित हो जाना,
उस बंजर धरती पर,
जहाँ सालों पानी की एक बूँद भी नहीं ठहर पायी थी.
(गाँव के बाहर की वह जमीन सालों से उजाड़ पड़ी थी, सुना था की वहां पहले एक तालाब हुआ करता था, जिसे जमीन बढाने की लालच में लोगों ने भर दिया था, और फिर वहां नहीं उगा कुछ भी, नहीं टिका कुछ भी, और पानी की बूँद पड़ते ही झक्क से भाप बनकर उड़ जाया करती थी, सालों से शायद उसे था मेरे ही प्रेम का इंतज़ार, पता है आज वहां पारिजात खिला था.)
तुम्हारे होने का मतलब,
खुशबु का फ़ैल जाना बिलकुल नहीं हो सकता,
बल्कि वह कुछ ऐसा है जैसे,
फूटपाथ पर पड़ी उस बच्ची की मुस्कान,
जिसे आज ही ठंढ से बचने के लिए,
दो जोड़ी जूते और एक कम्बल मिलें हों.
तुम्हारे होने के कई मतलब हैं, लेकिन तुम्हारा ना होना वैसा ही जैसा, अरावली की वह कातर ध्वनि, जिसे अब कोई नहीं सुनना चाहता, बस रौंद रही हैं काली सडकें, और गुम्म होता शांत कलरव, अरावली अब भी खड़ा है, प्रेम के इंतज़ार में, क्या उसे मिलेगा वह प्रेम, उस बच्ची की तरह, गाँव के बाहर की उस बंजर जमीन की तरह, और झील के ऊपर उतर आई उस ओस की तरह, या फिर खुद को चिढाती उस फोटोग्राफ की तरह. शायद उसको मेरी तरह तुम्हारे होने जैसा कोई अभी नहीं मिला है.








शनिवार, 15 अगस्त 2015

द लास्ट टच




केतन कन्नौजिया 



यूँ ही आवारगी में अल्फाज़ों को तरतीब देने की कवायद रहती है… कभी गाहे बगाहे कामयाबी मिल जाए तो ठीक, वरना अक्सर नाकाम लौटना होता हैं… ये ब्लॉग शायद गवाह है ऐसी ही आवारगी का… फिलहाल, इक तफ़तीश जारी है खुद की… गम-ए-ज़िंदगी… गम-ए-रोज़गार के चलते मसरूफ़ियत आ जाती है कभी कभार… मगर तलाश मसल्सल है साहब… देखिये कब पूरी होती है.
पेशे का ढंग से पता नहीं अलबत्ता गैरपेशेवर तरीके से एक इंसान बनने की कोशिश है… कब तक बन पाएँ, पता नहीं… दिल से शाइर और दमाग से अनाड़ी… कब, कहाँ, क्या इस्तेमाल करना है, अभी तक नहीं समझ आया… आज भी रिश्तों की फेरहिस्त में दोस्ती की एहमियत बहुत ज़्यादा है.

वक्त रुक जाता गर तो समेट लाते वो लम्हे,
उन शामों में नुक्कड़ पर जो बिखेरे थे कभी !!


हर बीतते लम्हे के साथ बाहर गिरती ओस अपने में जज़्ब हरारत को फ़ना कर रही थी… दिसम्बर 25 की उस रात घड़ी 3 बजकर 18 मिनट दिखा रही थी.

“कितने बजे निकालना है तुमको?”
“सुबह 8 बजे की फ्लाइट है… टी-3 से.”
“पैकिंग पूरी हो गयी? टिकट रख लिया?”
“हम्म! आज रात कुछ तेज़ नहीं बीत रही?”
“जब लम्हे काबू में नहीं होते तो वक़्त पर किसी का बस नहीं रहता… वक़्त यूं ही फिसलता है रेत की तरह. खैर! कोशिश करना के हमेशा यूं ही मुसकुराती रहो”
“यूं ही?”
“हम्म!”
“शायद मुश्किल होगा… मगर कोशिश करूंगी. तुम आओगे शादी में?”
“हाहाहा… क्यों, अनिरूद्ध नहीं आ रहा क्या?”
“हम्म! समझ गयी. मुझे पता था वैसे के जवाब क्या होगा. खैर, तुम अपना खयाल रखना. प्लीज़ जल्दी शादी कर लेना. आई वुड बी रिलीव्ड. तुमको पता है ना, आई स्टिल…”
“हम्म!”

वो लम्हा उसके बाद एक लम्स में जज़्ब होता चला गया… एक लम्बा तवील लम्स. उस एक जोड़ी लब के अलावा शायद उस लम्हे की गवाह उस सर्द रात की खामोशी भी थी जो चाहकर भी कुछ नहीं कह पा रही थी. वो लम्हा… जिसके दूसरी ओर रवायतों में गुम होने वाली दो ज़िंदगियों को अपना-अपना हिस्सा जीना था, बिना एक दूसरे के सहारे के.

कुछ रिश्तों को शायद अपनी मुकम्मल उम्र जीने के लिए ऐसे आखिरी लम्स की ज़रूरत होती है… द लास्ट टच. ये लम्स शायद उस अलाव का काम करता है जिसमें बीते हुए कल का सब कुछ जलकर धुआँ हो जाता है, सिर्फ कुछ यादों की खाक बाकी रहती है… जिसमें से अपना अपना हिस्सा लेकर दोनों जिस्म अलग होते हैं. अंग्रेज़ी में कुछ लोग इसे “क्लोज़र” भी कहते हैं… इसके परे दोनों ज़िंदगियाँ आज़ाद होती हैं… मुक्त… इंडिपेंडेंट!

नज़्म जब अपनी बात कहती है
ना दिन शुरू होता है
ना रात ख़त्म होती है
बस जिस्म सुलगता है और
रूह पिघलती है
दर्द रिसता है और सांस सरकती है
ना ज़मीं मिलती है… ना फ़लक़ दिखती है
इक दूर… अँधेरे में कोई
नज़्म जब अपनी बात कहती है

बुधवार, 12 अगस्त 2015

मैं महानगर बनता जा रहा हूँ...




डॉ रवि शर्मा
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'कुछ तो तेरे प्यार के मौसम ही मुझे रास कम आए, और कुछ मेरी मिट्टी में बगावत भी बहुत थी'. बस यही है मेरी फितरत. कुछ ही लोग मेरे दिल और दिमाग तक पहुँच पाते हैं. वैसे तो किसी शायर ने कहा है कि 'परखना मत, परखने से कोई अपना नहीं रहता', लेकिन मेरी आदत है छोटी छोटी बातें पकड़ना और उनका विश्लेषण करते रहना. और बगावती मिट्टी से पैदा हुई सोच का ही नतीजा है कि डाक्टरी की प्रेक्टिस छोड़कर पत्रकार बन गया...!!! रास तो खैर यह भी नहीं आ रहा.



मैं महानगर बनता जा रहा हूँ
और इसका अहसास भी
हुआ मुझे उसी रोज़
जब मैंने पाया
खुद को
हर दिशा से आई परेशानियों से घिरे हुए जो
मुझमे घर बनाने को आतुर थी।
तब मैंने जाना
इन परेशानियों के चेहरे
जाने पहचाने तो हैं
परिचित नहीं।
तभी मुझे लगा
मैं महानगर बनता जा रहा हूँ।
फ़िर उस रोज़
मेरे दिमाग के बीचोंबीच
एक चौराहे पर विचारों का
ट्रेफिक जाम हो गया।
पीछे कहीं फंस गयी यादों की चिल्लपों
के बाद मैं थम गया, लाल बत्ती सा।
तब मुझे लगा मैं महानगर बनता जा रहा हूँ।
और अभी कल ही तो
मेरे सीने से होकर गुजर रही
एक याद
वक्त की ताव न सहकर
गिर पड़ी
गश खाकर।
लोगों का हुजूम उसके चेहरे पर झुका,
मर गयी!
"अरे आगे बढो, देर हो रही है"
किसी विचार ने कहा।
और तभी मुझे लगा मैं महानगर बनता जा रहा हूँ।

सोमवार, 10 अगस्त 2015

कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े





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पूजा उपाध्याय 





मैं उसे रोक लेना चाहती थी
सिर्फ इसलिए कि रात के इस पहर
अकेले रोने का जी नहीं कर रहा था
मगर कोई हक कहाँ बनता था उस पर
मर रही होती तो बात दूसरी थी
तब शायद पुकार सकती थी
एक बार और


इन्टरनेट की इस निर्जीव दुनिया में
जहाँ सब शब्द एक जैसे होते हैं
मुझे उससे वादा चाहिए था
कि वो मुझे याद रखेगा
मेरे शब्दों से ज्यादा
मगर मैं वादा नहीं मांग सकती थी
सिर्फ मुस्कराहट की खातिर
वादे नहीं ख़रीदे जाते
मर रही होती तो बात दूसरी थी

मुझे याद रखना रे
मेरे टेढ़े मेरे अक्षरों में
फोन पर की आधा टुकड़ा आवाज़ से
तस्वीरों की झूठी-सच्ची मुस्कराहट से
और तुमसे जितना झूठ बोलती हूँ उससे
जो पेनकिलर खाती हूँ उससे
कि ज़ख्मों पर मरहम कहाँ लगाने देती हूँ
कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े

अगली बार जब मैं कहूँ चलती हूँ
मुझे जाने मत देना
बिना बहुत सी बातें कहे हुए
मैं शायद लौट के कभी न आऊँ
मर जाऊं तो भी
मुझे भूलना मत

मुझे जब याद करोगे
तो याद रखना ये वाली रात
जब कि रात के इस डेढ़ पहर
कोई पागल लड़की
स्क्रीन के इस तरफ
रो पड़ी थी तुमसे बात करते हुए
फिर भी उसने तुम्हें नहीं रोका

उसे लगता है मुझे एक कन्धा चाहिए

मैं कहती हूँ कि चार चाहिए
हँसना झूठ होता है
पर रोना कभी झूठ नहीं होता

उसने वादा तो नहीं किया
पर शायद याद रखेगा मुझे

दोहराती हूँ
बार बार, बार बार बार
बस इतना ही
मर जाऊं तो मुझे याद रखना...

रविवार, 9 अगस्त 2015

यह समस्या मेरी है .




गिरिजा कुलश्रेष्ठ
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जीवन के पाँच दशक पार करने के बाद भी खुद को पहली कक्षा में पाती हूँ ।अनुभूतियों को आज तक सही अभिव्यक्ति न मिल पाने की व्यग्रता है । दिमाग की बजाय दिल से सोचने व करने की आदत के कारण प्रायः हाशिये पर ही रहती आई हूँ ।फिर भी अपनी सार्थकता की तलाश जारी है ।



एक जंगल से गुजरते हुए ,
लिपटे चले आए हैं ,
कितने ही मकड़जाल.
चुभ गए कुछ तिरछे नुकीले काँटे
धँसे हुए मांस-मज्जा तक .
टीसते रहते हैं अक्सर .
महसूस नही कर पाती ,
क्यारी में खिली मोगरा की कली को .
अब मुझे शिकायत नही कि,
तुम अनदेखा करते रहते हो यह सब .   
यह समस्या मेरी है कि ,
काँटों को निकाल फेंक नही सकी हूँ , 
अभी तक . 
कि सीखा नही मैंने
आसान सपाट राह पर चलना .

कि यह जानते हुए भी कि,
तन गईं हैं कितनी ही दीवारें
आसमान की छाती पर ,
मैं खड़ी हूँ आज भी
उसी तरह , उसी मोड़ पर
जहाँ से कभी देखा करती थी .
सूरज को उगते हुए .

कि ठीक उसी समय जबकि ,
सही वक्त होता है
अपनी बहुत सारी चोटों और पीड़ाओं के लिये  
‘तुम’ को पूरी तरह जिम्मेदार मानकर
तुम से ..इसलिये पीड़ा से भी 
छुटकारा पाने का.
और आश्वस्त करने का ‘मैं’ को ,
मैं अक्सर तुम्हारी की जगह आकर
विश्लेषण करने लगती हूँ ,
तुम' की उस मनोदशा के कारण का , 
उसके औचित्य-अनौचित्य का.
और ...
मैं' के सही-गलत होने का भी .
तब मुक्त कर देती हूँ ‘तुम’ को
हर अपराध से .
इस तरह हाशिये पर छोड़ा है  
एक अपराध-बोध के साथ सदा ‘मैं’ को
खुद मैंने ही .

विडम्बना यह नही कि
दूरियाँ सहना मेरी नियति है .
बल्कि यह कि आदत नही हो पाई मुझे
उन दूरियों की अभी तक .
जो है ,जिसे होना ही है
उसकी आदत न हो पाने से बड़ी सजा
और क्या हो सकती है .

पता नही क्यूँ ,
जबकि जरूरत नही है
उस पार जा कर बस गए लोगों को,
मेरा सारा ध्यान अटका रहता है
एक पुल बनाने में .
उनके पास जाने के लिये ,
जिनके बिना रहना
सीखा नही मैंने अब तक .
चली जा रही हूँ उन्ही के पीछे 
जो देखते नही एक बार भी मुड़कर .

यह मेरी ही समस्या है कि,
कि मुझे हवा के साथ चलना नही आता 
नहीं भाता , धारा के साथ बहना .
प्रायः बैर रहता है मगर से , 
जल में रहते हुए ही .

यह समस्या मेरी ही है
कि मैं खड़ी रहती हूँ
अक्सर बहुत सारे मलालों 
और सवालों के घेरे में 
खुद ही .  

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

“कभी-कभी ऐसा होता है”






जीवन की  भागदौड़ और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति में हम कितने अच्छे रचनाकारों को पढ़ नहीं पाते
… आखिर होते तो कुल २४ घंटे ही हैं. उसमें कितना कुछ !
ऐसे में कोई नया शब्दशिल्पी मिलता है - तो अच्छा लगता है  …







तीन महीने बाद, आज नैना को वो लम्हा मिला था, जो एक जगह कहीं ठहर जाने जैसा था। कॉफ़ी शॉप में कप थामे, उसकी नज़र शीशे के बाहर भींगी शाम के अँधेरे में खुद को उतारना चाहती, तो आसमान में टंगे यादों के काले बादल, उसे रोक लेते। बाहर गिरती बारिश की बूंदों के शोर से नैना का एक ऐसा दर्द जुडा था, जो उसके दिल की सारी मस्तियाँ, सारी जिंदादिली छीन चुकी थी। बच गई थी, तो उसके अंदर सिर्फ एक चुभती हुई ख़ामोशी, एक दर्द। जिससे दूर जाने के लिए, उसने शहर बदला, नौकरी बदली। पर दूर तो दूसरों से जाया जाता है, अपने दिल से, खुद से, नहीं। अर्णव और उसकी यादें भी तो कोई दूसरी नहीं थी |
बारिश की इस शाम ने नैना के उन ज़ख्मों को कुरेद दिया। जिसको दिल्ली आने के बाद वो अपने मसरूफ़ियत से भरने की कोशिश कर रही थी। टेबल पर रखी उसके फोन में घंटी बजी, उठाया तो
“कहाँ हो नैना? पार्टी शुरू होने वाली है”
“सॉरी अंजलि, मैं नहीं आ पाऊँगी, ऑफिस के बाद बारिश में फँस गई हूँ“
“पर इधर तो नहीं हो रही”
“बारिश तो हर वक़्त कहीं न कहीं होती ही है, पर भींगता कोई-कोई।“
नैना ने अपने ज़ज्बात को उन लम्हों से जोड़ा तो अंजलि ने सवाल की,
“मैं समझी नहीं, क्या बोल रही है तू”
“वेल लीव दिस, इधर तो बहुत हो रही है, तुम सब एन्जॉय करो, वन्स अगेन हैप्पी बर्थडे टू यू डिअर”।
सच कहा था नैना ने भींगता कोई-कोई ही है। यहाँ बैठे-बैठे, वो भी तो भींग ही रही थी अर्णव की यादों में, और बाहर बारिश रुक सी गई थी।
कानपूर में वो बरसात का ही दिन था। जब नैना कॉलेज से अपनी ऍमबीऐ की डिग्री लेकर, रोहन के बाइक पर सवार होकर भींगते हुए अर्णव के पास पहुँची थी। जिसे अर्णव ने न जाने किन बातों से जोड़ दिया। “तुम, रोहन के साथ, वो भी इस हालत में आई हो, क्या है ये? कब से चल रहा है ये सब?” अर्णव इतने पर कहाँ रुका था। उसने तो रोहन को भी क्या-क्या कह दिया, उनदोनो की दोस्ती के रिश्ते को गालियाँ तक दे दी “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, मेरी गर्ल फ्रेंड को अपने बाइक पर बैठाने की”। अर्णव के इस तमाशे ने वहाँ कितने चेहरे को खड़े कर दिए थे, जैसे किसी फिल्म की शूटिंग चल रही हो। नैना को ये देख जब रहा नहीं गया तो वो बोली “अर्णव क्या हो गया तुम्हें” । अर्णव चिल्लाते हुए कहा “तुम चुप रहो, मैं तुमसे बाद में बात करता हूँ”। फिर वो बाद कहाँ, नैना उसी वक़्त वहाँ से चली आई।
यह अच्छी बात है कि सामने वाला possessive हो पर इतना न हो कि possessiveness शक का रूप इख्तियार कर ले। रिश्तों को खाक कर देता है ये शक। उस दिन के बाद, फिर न कभी नैना ने उससे संपर्क किया और न ही अर्णव ने।
आज तीन महीने के बाद दोपहर में ऑफिस के टेलीफ़ोन पर अर्णव का कॉल आया था, “नैना, आई ऍम सो सॉरी, न जाने उस दिन मुझे क्या हो गया था। रोहन के साथ तुमको देखने के बाद। सो प्लीज फोर्गिव मी, मैं आज शाम के फ्लाइट से दिल्ली आ रहा हूँ। मुझे वहाँ जॉब मिल गई है। प्लीज एअरपोर्ट आ जाना नौ बजे”। नैना ने बिना जवाब दिए रिसीवर रख दिया ।
उसके लिए, जितना अर्णव का कॉल आना सवाल नहीं बना, उतना ये “आखिर अर्णव को, यहाँ का नंबर कहाँ से मिला”। दिमाग पर जोर दिया तो याद आया, करीब सप्ताह भर पहले फेसबुक पर उसका रिक्वेस्ट आया था। जिसे उसने अब तक पेंडिंग छोड़ रखा है। शायद वहीँ से मिला होगा।
घड़ी को देखा तो सात बज रहे थे। वक़्त तो दौड़ रहा था मगर बारिश ने दिल्ली को रोक दिया था। ठहर गई थी दिल्ली पर जो कुछ नहीं ठहर था, तो वो थी, हर बीतते लम्हों के साथ नैना के दिल की बैचैनी। फोन उठा कर एक नंबर मिलाया “हेल्लो इजी कैब”
“यस, हाउ मे आई असिस्ट यू मेम”
“आई ऍम नैना अग्रवाल ...,”
नैना ने पिक्कअप और ड्राप पॉइंट नोट करवाया तो अगले पन्द्रह मिनटों में कैब कॉफ़ी शॉप के बाहर आ कर खड़ी हो गई। नैना के बैठते ही कैब सड़क पर जमे पानी को तेज़ रफ़्तार के साथ हवा में उछालते दौड़ने लगी। वो अपने प्यार को एक ऐसा ही रफ़्तार देने को निकली है, जो तीन महीने से कहीं ठहर गया था। ठहरे पानी में तो काई भी लग जाती है, और वो अपने प्यार को शक की आग में खाक होते नहीं देखना चाहती।
सीपी से एअरपोर्ट के इस सफ़र में वो बहुत खुश थी। तेज़ रफ़्तार से दौड़ती कैब के विंडो से हाँथ बाहर निकालती और बारिश बुँदे हंथेलियों पर जमा कर अंदर कर लेती। ये बुँदे उसकी तीन महीने से जाया होने वाले वे आँसू थे। जिसे समेटने का उसे आज मौका मिल रहा था।
एअरपोर्ट पर कैब से उतर कर, वो एरावल के गेट नंबर तीन पर एक फूलों का गुलदस्ता ले कर और खड़ी हो गई, अर्णव के इंतजार में। गेट से एग्जिट करते हुए नैना ने अर्णव को देख लिया था, मगर लोगों की भीड़ में अर्णव नैना को नहीं देख पाया। नैना ने उसे आवाज़ लगाया “अर्णव, दिस साइड”।
नैना को तलाशती अर्णव की नज़रें जब एक जगह ठहरी तो उसे मुस्कुराती हुई नैना दिखी, जिसका उसने कभी दिल दुखाया था। उसकी नज़रे शर्म से झुकी तो नहीं पर नैना की प्यार से भरे जरुर दिखे। नैना के सामने पहुँच कर जब उसने अपना सनग्लास उतारा तो लगा अब छलक जायेंगे।
नैना ने फूलों का गुलदस्ता अर्णव देते हुए बोली “वेलकम बेक”।
अर्णव लोगों के भीड़ के सामने नैना से फिर से माफ़ी माँगने की कोशिश की तो नैना ने उसके होठों पर हाँथ रखते हुए बोली “मुझे यकीन था, तुम एक दिन आओगे, तुम आये यही काफी है” और हँसते हुए कहा “यार, प्यार में कभी-कभी ऐसा होता है”।
अर्णव ने आगे बढ़कर नैना को बाँहों में भरा और माथे को चुमते हुए बोला “हाँ, कभी-कभी ऐसा होता है”। फिर तो बिजली की तेज़ करकराहट के साथ पूरी रात बारिश होती रही।



गुरुवार, 6 अगस्त 2015

कहिये - आमीन






लम्हों से जो एक लम्हा गिरा तो नाम मिला  ……।
   जीवन की अपनी आपाधापी, अपने एहसासों का दावानल,और नम सपने - कई बार फुरसत नहीं होती कि दूसरों की अग्नि,आपाधापी,नम सपनों को देखा जाए  … कई बार कितने महाभिनिष्क्रमण,चक्रव्यूह में अभिमन्यु,एथेंस का सत्यार्थी अनदेखे रह जाते हैं !
अपनी भागदौड़ की रास खींचकर मैंने कई जंगल,गुलमर्ग,बियाबान को पढ़ा है, रेगिस्तान की नम रेतों को समझा है
एक लम्हे की तरह रेत के नम कण मैं बारी बारी लेकर आऊँगी ताकि वे अपने पाठकों को,पाठक उन्हें जान सकें
कहिये - आमीन 

बुधवार, 5 अगस्त 2015

एक तेरे लम्हे की सोच एक मेरा लम्हा


बस एक लम्हे का झगड़ा था
दर-ओ-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है
हर एक शय में गई
उड़ती हुई, चलती हुई, किरचें
नज़र में, बात में, लहजे में,
सोच और साँस के अन्दर
लहू होना था इक रिश्ते का
सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्जें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग न जाए
बस एक लम्हे का झगड़ा था  (गुलज़ार) 







लम्हों से गिरा था वो लम्हा
कितना कुछ कहा था उसने
आज तक सुनती रही हूँ
अब सोचती हूँ  …
एक सिर्फ एक लम्हा
मिल जाये मुझे
मुझे भी कुछ कहना है
ताकि एक लम्हे की कैद में तुम भी जीयो  … (रश्मि प्रभा)