शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

एक लम्हा घर, एक लम्हा बेघर



कुछ परिंदों के ना घर होते हैं ना घोंसले , बस पर होते हैं और हौसले ~ © अनुपम ध्यानी






मन में कोहरा
कोहराम हृदय में
ना ही मन में राम बसा है
ना ही मेरे श्याम हृदय में
किंतु फिर भी पुलकित है मन
मानो
है कोई धाम हृदय में
यह शीश जो कभी झुका नहीं
नतमस्तक है,
जैसे हो कोई प्रणाम हृदय में
बस नृत्य है
दौड़ते लहु में
ना है कोई विराम हृदय में
पर साँसों की इस उथल पुथल में
स्थिर सा है कोई ग्राम हृदय में
नित्य शौर्य का उदगम मन में
नित्य भय की शाम हृदय में
एकाग्र है मन, शांत चित्त भी
फिर भी ना कोई विश्राम हृदय में
मन है बगुला, चुप चाप खड़ा है
पर है कोई संग्राम हृदय में
यह प्रेम नही तो क्या है राही
उसका ही है यह काम हृदय में
मन में जो यह कोहरा है और
जो है ये कोहराम हृदय में
मन में जो यह कोहरा है और
जो है ये कोहराम हृदय में


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