बुधवार, 5 अगस्त 2015

एक तेरे लम्हे की सोच एक मेरा लम्हा


बस एक लम्हे का झगड़ा था
दर-ओ-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है
हर एक शय में गई
उड़ती हुई, चलती हुई, किरचें
नज़र में, बात में, लहजे में,
सोच और साँस के अन्दर
लहू होना था इक रिश्ते का
सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्जें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग न जाए
बस एक लम्हे का झगड़ा था  (गुलज़ार) 







लम्हों से गिरा था वो लम्हा
कितना कुछ कहा था उसने
आज तक सुनती रही हूँ
अब सोचती हूँ  …
एक सिर्फ एक लम्हा
मिल जाये मुझे
मुझे भी कुछ कहना है
ताकि एक लम्हे की कैद में तुम भी जीयो  … (रश्मि प्रभा)




















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