गुरुवार, 10 सितंबर 2015

चाहत जीने की





दिगम्बर नासवा 
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स्वप्न स्वप्न स्वप्न, सपनो के बिना भी कोई जीवन है ...


बेतरतीब लम्हों की चुभन मजा देती है ... महीन कांटें अन्दर तक गढ़े हों तो उनका मीठा मीठा दर्द भी मजा देने लगता है ... एहसास शब्दों के अर्थ बदलते हैं या शब्द ले जाते हैं गहरे तक पर प्रेम हो तो जैसे सब कुछ माया ... फूटे हैं कुछ लम्हों के बीज अभी अभी ...

टूट तो गया था कभी का
पर जागना नहीं चाहता तिलिस्मी ख्वाब से
गहरे दर्द के बाद मिलने वाले सकून का वक़्त अभी आया नही था

लम्हों के जुगनू बेरहमी से मसल दिए
कि आवारा रात की हवस में उतर आती है तू
बिस्तर की सलवटों में जैसे बदनाम शायर की नज़्म
नहीं चाहता बेचैन कर देने वाले अलफ़ाज़
मजबूर कर देते हैं जो जंगली गुलाब को खिलने पर

महसूस कर सकूं बासी यादों की चुभन
चल रहा हूँ नंगे पाँव गुजरी हुयी उम्र की पगडण्डी पे
तुम और मैं ... बस दो किरदार
वापसी के इस रोलर कोस्टर पर फुर्सत के तमाम लम्हों के साथ

धुंए के साथ फेफड़ों में जबरन घुसने की जंग में
सिगरेट नहीं अब साँसें पीने लगा हूँ
खून का उबाल नशे की किक से बाहर नहीं आने दे रहा

काश कहीं से उधार मिल सके साँसें
बहुत देर तक जीना चाहता हूँ जंगली गुलाब की यादों में 

5 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी रचना को साझा करने का आभार ...
    आशा है आप स्वस्थ होंगी ... मेरी बहुत बहुत शुभकामनायें ...

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  2. बहुत ही शानदार रचना। दिगंबर जी का लेखन लाजवाब है।

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  3. बहुत सुंदर रचना
    दिगंबर जी तो बहुत खुबसूरत लिखते ही हैं
    बढ़िया संयोजन --

    सादर

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  4. आदरणीय दिगंबर जी -- बहुत लाजवाब रचना है आपकी पढ़कर मन को बहुत ख़ुशी हुई -- हार्दिक शुभकामना --

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